क्षितिज(Kshitij-Textbook)-Additional Questions [CBSE (Central Board of Secondary Education) Class-10 (Term 1 & 2 MCQ) Hindi]: Questions 674 - 686 of 1621

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Passage

पाठ 11

रामवृक्ष बेनीपुरी

″ रामवृक्ष बेनीपुरी एक कुशल साहित्यकार के

साथ-साथ भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी

रहे थे। इसीलिए इनके साहित्य में क्रान्ति

के भाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।

प्रस्तुत पुस्तक में संग्रहित इनका निबंध बाल

गोबिन भगत भी सामाजिक क्रान्ति की भाव

भूमि पर आधारित निबंध है। जिसकी भाषा

काफ़ी ओजपूर्ण है ″

जीवन-परिचय- आधुनिक युग के प्रसिद्ध निबंधकार श्री रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म बिहार के मुजफ्ऱपुर जिले के अन्तर्गत बेनीपुर नामक गाँव में सन्‌ 1902 में हुआ। बचपन में माता-पिता का देहान्त हो जाने के कारण उनकी मौसी ने उनका पालन-पाषण किया। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में हुई। अनेक अभावों और कठिनाइयों को सहकर उन्होंने दसवीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त की। सन्‌ 1920 में महात्मा गाँधी के असंहयोग आंदोलन के दौरान उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। छोटी आयु में ही उन्होंने लेखन-कार्य आरम्भ कर दिया था। 15 वर्ष की आयु में ही उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगीं। उन्होंने तरुण भारत, किसान मित्र, बालक, युवक, कर्मवीर, हिमालय, नई धारा, योगी, जनता, जनवाणी आदि अनेक साप्ताहिक व मात्रिक पत्र-पत्रिकाओं का सफलतापूर्वक संपादन करके एक लोकप्रिय संपादक के रूप में यश प्राप्त किया। सन्‌ 1968 ई. में उनका स्वर्गवास हो गया।

प्रमुख रचनाएँ-श्री रामवृक्ष बेनीपुरी ने अनेक विधाओं में लेखनी चलाई। उनकी नाटक उपन्यास कहानी संस्मरण, निबंध, यात्रा-विवरण आदि अनेक विधाओं में कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। अंबपाली (नाटक) , पतितों के देश में (उपन्यास) , चिता के फूल (कहानी) , माटी के मूरतें, नेत्रदान, मन और विजेता (रेखाचित्र) , गेहूँ और गुलाब (निबंध व रेखाचित्र) , जंजीरे, दीवारें (संस्मरण) , पैरों में पंख बाँधकर (यात्रा-विवरण) उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। उनकी कुछ रचनाएँ बेनीपुरी ग्रंथावली के रूप में दो भागों में प्रकाशित हो चुकी हैं।

साहित्यिक विशेषताएँ- बेनीपुरी जी के जीवन में राजनीति, साहित्य और संस्कृति की तीनों धाराएँ प्रवाहित हैं। उनकी रचनाएँ समाज-सुधार और राष्ट्र-उत्थान की प्रेरणा देती हैं। स्वंतत्रता सेनानी होने के नाते उन्होंने जो कुछ भी सीखा, उसे साहित्य में व्यक्त कर दिया। उनकी रचनाओं में बाल-सुलभ जिज्ञासा के दर्शन होते हैं।

भाषा-शैली- बेनीपुरी जी ने अपनी रचनाओं में भावों के अनुरूप भाषा का प्रयोग किया। उनकी भाषा सरल-स्वाभाविक खड़ी बोली है। उन्होंने तत्सम, तद्भव व उर्दू के साथ सामान्य बोलचाल के आँचलिक शब्दों का भी प्रयोग किया है। उनकी अधिकतर रचनाओं में विचारात्मक, चित्रात्मक एवं व्याख्यात्मक शैली देखने को मिलती है। उन्होंने एक-एक वाक्य को सूक्ति के समान प्रभावशाली बनाकर प्रयुक्त किया। प्रतीकों का प्रयोग भी उनकी भाषा-शैली की एक अन्य विशेषता है।

कहावतों और मुहावरों के समुचित प्रयोग से उनकी भाषा सप्राण हो उठी है। प्रतीकात्मकता, व्यंग्यात्मकता, लाक्षणिकता, ध्वन्यात्मक सौष्ठव और आलंकारिता के कारण उनकी भाषा में अद्भुत प्रभाव उत्पन्न हुआ है। छोटे-छोटे वाक्य गहरी अर्थ-व्यंजना के कारण पाठक के हृदय पर तीखी चोट करते हैं। कुल मिलाकर रामवृक्ष बेनीपुरी जी को हिन्दी भाषा का बादशाह कहना किसी प्रकार से अनुचित नहीं होगा।

बालगोबिन भगत

प्रस्तुत रेखाचित्र के माध्यम से लेखक रामव़ृक्ष बेनीपुरी ने मानवता, लोक संस्कृति, सामूहिक चेतना का प्रतीक एक विलक्षण चरित्र बालगोबिन भगत का उद्घाटन किया है। लेखक ने बताया है कि मनुष्य मानवीय गुणों के आधार पर ही संन्यासी हो सकता है, वेश-भूषा या बाहरी अनुष्ठान आदि करने से नहीं होता। लेखक ने बालगोबिन भगत को इन्हीं के आधार पर संन्यासी कहा है साथ ही समाज में व्याप्त जाति-वर्ग भेद जैसी सामाजिक विसंगतियों और रूढ़ियों पर भी प्रहार किया है।

बालगोबिन भगत मँझोले कद के गोर-चिट्‌टे आदमी थे। साठ से ऊपर के ही होंगे। बाल पक गए थे। लंबी दाढ़ी या जटाजूट तो नहीं रखते थे, किंतु, हमेशा उनका चेहरा सफ़ेद बालों से ही जगमग किए रहता। कपड़े बिलकुल कम पहनते। कमर में एक लंगोटी-मात्र और सिर में कबीरपंथियों की-सी कनफटी टोपी। जब जाड़ा आता, एक काली कमली ऊपर से ओढ़े रहते। मस्तक पर हमेशा चमकता हुआ रामानंदी चंदन, जो नाक के एक छोर से ही, औरतों के टीका की तरह, शुरू होता। गले में तुलसी की जड़ों की एक बेडौल माला बाँधे रहते।

ऊपर की तस्वीर से यह नहीं माना जाए कि बाालगोबिन भगत साधु थे। नहीं, बिलकुल गृहस्थ! उनकी गृहिणी की तो मुझे याद नहीं, उनके बेटे और पतोहू को तो मैंने देखा था। थोड़ी खेतीबारी भी थी, एक साफ़-सुथरा मकान भी था।

किंतु, खेतीबारी करते, परिवार रखते भी, बालगोबिन भगत साधु थे-साधु की सब परिभाषाओं में खरे उतरनेवाले। कबीर को ‘साहब’ मानते थे, उन्हीं के गीतों को गाते, उन्हीं के आदेशों पर चलते। कभी झूठ नहीं बोलते, खरा व्यवहार रखते। किसी से भी दो-टूक बात करने में संकोच नहीं करते, न किसी से खामखाह झगड़ा मोल लेते। किसी की चीज़ नहीं छूते, न बिना पूछे व्यवहार में लाते। इस नियम को कभी-कभी इतनी बारीकी तक ले जाते कि लोगों को कुतूहल होता! -कभी वह दूसरे के खेत में शौच के लिए भी नहीं बैठते! वह गृहस्थ थे; लेकिन, उनकी सब चीज़ साहब की थी। जो कुछ खेत में पैदा होता, सिर पर लादकर पहले उसे साहब के दरबार में ले जाते- जो उनके घर से चार कोस दूर पर था-एक कबीरपंथी मठ से मतलब! वह दरबार में भेंट रूप रख लिया जाकर प्रसाद रूप में जो उन्हें मिलता, उसे घर लाते और उसी से गुज़र चलाते!

इन सबके ऊपर, मैं तो मुग्ध था उनके मधुर गान पर- जो सदा-सर्वदा ही सुनने को मिलते। कबीर के वे सीधे-सादे पद, जो उनके कंठ से निकलकर सजीव हो उठते।

यहाँ बालगोबिन भगत का चित्रण किया गया है। शारीरिक विशेषताओं के साथ उसके पहनावे का भी वर्णन किया गया है। उनके पहनावे और वेश-भूषा से उन्हें साधु नहीं कहा जा सकता। वे गृहस्थ थे, उनका एक बेटा और बहू थी। परिवार और खेतीबारी के होते हुए भी बालगोबिन संन्यासी की तरह थे। वे कबीर को साहब मानते थे, तथा उनके गीत से निकले हुए केंद्रीय भावों व आदेशों का अक्षरश: पालन करते थे। सीधा और सच्चा व्यवहार रखते थे। किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं करते थे। किसी की चीज़ का अपने लिए उपयोग नहीं करते थे, न ही दूसरे के खेत में शौच आदि करते थे। खेत में पैदा हुए अनाज को सिर पर लादकर कबीर के दरबार में ले जाते, वहाँ से प्रसाद के रूप में जो भी मिलता था उसी से गुजारा करते थे। लेखक उनके द्वारा गाए गए कबीर के पद को सुनकर आनन्दित हो उठता था।

आसाढ़ की रिमझिम बारिस हो रही है। समूचा गाँव खेतों में उतर पड़ा है। कहीं हल चल रहे हैं; कहीं रोपनी हो रही है। धान के पानी -भरे खेतों में बच्चे उछल रहे हैं। औरतें कलेवा लेकर मेंड़ पर बैठी हैं। आसमान बादल से घिरा; धूप का नाम नहीं। ठंडी पुरवाई चल रही। ऐस ही समय आपके कानों में एक स्वर-तरंग झंकार-सी कर उठी। यह क्या है- यह कौन है। यह पूछना न पड़ेगा। बालगोबिन भगत समूचा शरीर कीचड़ में लिथड़े, अपने खेते में रोपनी कर रहे हैं। उनकी अँगुली एक-एक धान के पौधे को, पंक्तिबद्ध, खेत में बिठा रही है। उनका कंठ एक-एक शब्द को संगीत के जीने पर चढ़ाकर कुछ को ऊपर, स्वर्ग की ओर भेज रहा है और कुछ को इस पृथ्वी की मिट्‌टी पर खड़े लोगों के कानों की ओर! बच्चे खेलते हुए झूम उठते हैं; मेंड़ पर खड़ी औरतों के होंठ काँप उठते हैं, वे गुनगुनाने लगती हैं; हलवाहों के पैर ताल से उठने लगते हैं; रोंनी करनेवालों की अँगुलियाँ एक अजीब क्रम से चलने लगती हैं! बालगोबिन भगत का यह संगीत है या जादू!

यहाँ लेखक ने आषाढ़ के महीने में प्रकृति और खेतों में होने वाली चहल-पहल का उल्लेख किया है। आषाढ़ के महीनें में बरसात होने के बाद गाँव के सभी लोग खेतों में आकर धान की रोपाई आरम्भ कर देते हैं। औरतें खाना लेकर आती हैं। बालगोबिन भगत भी अपने खेत में धान की रोपाई करता हुआ अपनी संगीतमय आवाज में जब गाता है तो सभी स्त्री, पुरुष बच्चे झूमने व गुनगनाने लगते हैं, हलवाहों और रोपाई करने वालों में जोश और उमंग की लहर व्याप्त हो जाती है।

भादों की वह अँधेरी अधरतिया। अभी, थोड़ी ही देर पहले मूसलाधार वर्षा खत्म हुई है। बादलों की गरज, बिजली की तड़प में आपने कुछ नहीं सुना हो, किंतु अब झिल्ली की झंकार या दादुरों की टर्र-टर्र बालगोबिन भगत के संगीत को अपने कोलाहल में डुबों नहीं सकतीं। उनकी खँजड़ी डिमक-डिमक बज रही है और वे गा रहे हैं- गोदी में पियवा, चमक उठे सखिया, चिहुँक उठे ना! ″ हाँ, पिया तो गोद में ही है, ंकंतु वह समझती है, वह अकेली है, चमक उठती है, चिहुँक उठती है। उसी भरे-बादलोंवाले भादों की आधी रात में उनका यह गाना अँधेरे में अकस्मात कौंध उठनेवाली बिजली की तरह किसे न चौंका देता? अरे, अब सारा संसार निस्तब्धता में सोया है, बालगोबिन भगत का संगीत जाग रहा है, जगा रहा है! - तेरी गठरी में लागा चोर मुसाफ़िर जाग ज़रा!

कातिक आया नहीं कि बालगोबिन भगत की प्रभातियाँ शुरू हुईं, जो फागुन तक चला करती। इन दिनों वह सबेरे ही उठते। न जाने किस वक्त जगकर वह नदी-स्नान को जाते-गाँव से दो मील दूर! वहाँ से नहा-धोकर लौटते और गाँव के बाहर ही, पोखरे के ऊँचे भिंडे पर, अपनी खँजड़ी लेकर जा बैठते और अपने गाने टेरने लगते। मैं शुरू से ही देर तक सोनेवाला हूँ, किंतु, एक दिन, माघ की उस दाँता-किट-किटवाली भोर में भी, उनका संगीत मुझे पोखरे पर ले गया था। अभी आसमान के तारों की दीपक बुझे नहीं थे। हाँ, पूरब में लोही लग गई थी, जिसकी लालिमा को शुक्र तारा और बढ़ा रहा था। खेत, बगीचा, घर-सब पर कुहासा छा रहा था। सारा वातावरण अजीब रहस्य से आवृत मालूम पड़ता था। उस रहस्यमय वातावरण में एक कुश की चटाई पर पूरब मुँह, काली कमली ओढ़े, बालगोबिन भगत अपनी खँजड़ी लिए बैठे थे। उनके मुँह से शब्दों का ताँता लगा था, उनकी अँगुलियाँ खँजड़ी पर लगातार चल रही थीं। गाते-गाते इतने मस्त हो जाते, इतने सुरूर में आते, उत्तेजित हो उठते कि मालूम होता, अब खड़े हो जाएँगे। कमली तो बार-बार सिर से नीचे सरक जाती। मैं जाड़े से कँपकँपा रहा था, किंतु, तारे की छाँव में भी उनके मस्तक के श्रमबिंदु, जब तब, चमक ही पड़ते।

भाद्रपद महीने की अंधेरी व आधी रात में मूसलाधार वर्षा के बाद होने वाली बादलों की गर्जन, बिजली की कड़क टिड्‌डों और मेंढकों की आवाज़ का शोर भी बालगोबिन की मधुर आवाज़ को नहीं दबा पाते। अंधेरी रात में उनके द्वारा गाये जाने वाला एक गाना सबको चौंका देता है। जब सारा संसार सो जाता है तो बालगोबिन सबको सचेत करता हुआ गाना गाता है। कार्तिक के महीने में बालगोबिन शीघ्र ही नदी-स्नान करके प्रभात-फेरी पर निकल पड़ते थे। माघ महीने की रक्त को जमाने वाली ठंड में वे पूर्व की ओर मुँह करके एक चटाई पर अपनी खंजड़ी बजाकर गाने बैठ जाते। गाते-गाते वे इतने रोमांचित हो जाते कि कँपकँपा देने वाले उस जाड़े में भी उनके माथे पर पसीना आ जाता था।

गर्मियों में उनकी संझा कितनी उमसभरी शाम को न शीतल करती! अपने घर के आँगन में आसन जमा बैठते। गाँव के उनके कुछ प्रेमी भी जुट जाते। खँजड़ियों और करतालों की भरमार हो जाती। एक पद बालगोबिन भगत कह जाते, उनकी प्रेमी-मंडली उसे दुहराती, तिहराती। धीरे-धीरे स्वर ऊँचा होने लगता-एक निश्चित ताल, एक निश्चित गति से। उस ताल-स्वर के चढ़ाव के साथ श्रोताओं के मन भी ऊपर उठने लगते। धीरे-धीरे मन तन पर हावी हो जाता। होते -होते, एक क्षण ऐसा आता कि बीच में खँजड़ी लिए बालगोबिन भगत नाच रहे हैं और उनके साथ ही सबके तन और मन नृत्यशील हो उठे हैं। सारा आँगन नृत्य और संगीत से ओतप्रोत है!

बालगोबिन भगत की संगीत-साधना का चरम उत्कर्ष उस दिन देखा गया, जिस दिन उनका बेटा मरा। इकलौता बेटा था वह! कुछ सुस्त और बोदा-सा था, किंतु इसी कारण बालगोबिन भगत उसे और भी मानते। उनकी समझ में ऐसे आदमियों पर ही ज्य़ादा नज़र रखनी चाहिए या प्यार करना चाहिए, क्योंकि ये निगरानी और मुहब्बत के ज्य़ादा हकदार होते हैं। बड़ी साध से उसकी शादी कराई थी, पतोहू बड़ी ही सुभग और सुशील मिली थी। घर की पूरी प्रबंधिका बनकर भगत को बहुत कुछ दुनियादारी से निवृत्त कर दिया था उसने। उनका बेटा बीमार है, इसकी खबर रखने की लोगों को कहाँ फुर्सत! किंतु मौत तो अपनी ओर सबका ध्यान खींचकर ही रहती है। हमने सुना, बालगोबिन भगत का बेटा मर गया। कुतूहलवश उनके घर गया। देखकर दंग रह गया। बेटे को आँगन में एक चटाई पर लिटाकर एक सफ़ेद कपड़े से ढाँक रखा है। वह कुछ फूल तो हमेशा ही रोप रहते, उन फूलों में से कुछ तोड़कर उस पर बिखरा दिए हैं; फूल और तुलसीदल भी। सिरहाने एक चिराग जला रखा है। और, उसके सामने ज़मीन पर ही आसन जमाए गीत गाए चले जा रहे हैं! वही पुरान स्वर, वही पुरानी तल्लीनता। घर में पतोहू रो रही है, जिसे गाँव की स्त्रियाँ चुप कराने की कोशिश कर रही हैं। किंतु, बालगोबिन भगत गाए जा रहे हैं! हाँ, गाते-गाते कभी-कभी पतोहू के नज़दीक भी जाते और उसे रोने के बदले उत्सव मनाने को कहते! आत्मा परमात्मा के पास चली गई, विरहनी अपने प्रेमी से जा मिली, भला इससे बढ़कर आनंद की कौन बात? मैं कभी-कभी सोचता, यह पागल तो नहीं हो गए। किंतु नहीं, वह जो कुछ कह रहे थे, उसमें उनका विश्वास बोल रहा था-वह चरम विश्वास, जो हमेशा ही मृत्यु पर विजयी होता आया है।

गर्मियों में घर के आँगन में ही उसके कुछ प्रेमी आ बैठते और खंजड़ी और तालियों की लय बालगोबिन आगे-आगे गाते पीछे प्रेमी मंडल दोहरात। धीरे-धीरे उनका स्वर ऊँचा होता जाता और मन शरीर पर हावी हो जाता देखते-देखते बालगोबिन नाचने लगते। बालगोबिन भगत की संगीत की उत्कर्षता उसके इकलौते बेटे की मृत्यु पर देखने को मिला। बालगोबिन का मानना था कि बीमार और कमजोर लोगों को प्रेम की अधिक आवश्यकता होती है। बेटे की लाश को आँगन में लिटाकर फूल और तुलसी उस पर बिखेर रखी थी। बालगोबिन जमीन पर बैठे अपने पुराने स्वर और तल्लीन भाव से गा रहे थे। गाने के बीच में वे अपनी पुत्रवधु को रोने के बदले उत्सव मनाने को कह रहे थे। वे कहते आत्मा और परमात्मा के मिलन से बढ़कर कोई आनंद नहीं है। लेखक को वह कभी पागल लग रहा था, तो कभी उसमें उनका मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का दृढ़ विश्वास बोलता दिखाई दे रहा था।

बेटे के क्रिया-कर्म में तूल नहीं किया; पतोहू से ही आग दिलाई उसकी। किंतु ज्योंही श्राद की अवधि पूरी हो गई, पतोहू के भाई को बुलाकर उसके साथ कर दिया, यह आदेश देते हुए कि इसकी दूसरी शादी कर देना। उनकी जाति में पुनर्विवाह कोई नई बात नहीं, किंतु पतोहू का आग्रह था कि वह यहीं रहकर भगत जी की सेवा-बंदगी में अपने वैधव्य के दिन गुज़ार देगी। लेकिन, भगत जी का कहना था-नहीं, यह अभी जवान है, वासनाओं पर बरबस काबू रखने की उम्र नहीं है इसकी। मन मतंग है, कहीं इसने गलती से नीच-ऊँच में पैर रख दिए तो। नहीं-नहीं, तू जा। इधर पतोहू रो-रोकर कहती। मैं चली जाऊँगी तो बुढ़ापे में कौन आपके लिए भोजन बनाएगा, बीमार पड़े, तो कौन एक चुल्लू पानी भी देगा? मैं पैर पड़ती हूँ, मुझे अपने चरणों से अलग नहीं कीजिए। लेकिन भगत का निर्णय अटल था। तू जा, नहीं तो, मैं ही इस घर को छोड़कर चल दूँगा-यह थी उनकी आखिरी दलील और इस दलील के आगे बेचारी की क्या चलती?

बालगोबिन भगत की मौत उन्हीं के अनुरूप हुई। वह हर वर्ष गंगा-स्नान जाते। स्नान पर उतनी आस्था नहीं रखते, जितना संत-समागम और लोक-दर्शन पर। पैदल ही जाते। करीब तीस कोस पर गंगा थी। साधु को संबल लेने का क्या हक? और, गृहस्थ किसी से भिक्षा क्यों माँगे? अत: घर से खाकर चलते, तो फिर घर पर ही लौटकर खाते। रास्ते भर खँजड़ी बजाते, गाते जहाँ प्यास लगती, पानी पी लेते। चार-पाँच दिन आने-जाने में लगते; किंतु इस लंबे उपवास में भी वही मस्ती! अब बुढ़ापा आ गया था, किंतु टेक वही जवानीवाली। इस बार लौटे, तो तबीयत कुछ सुस्त थी। खाने-पीने के बाद भी तबीयत नहीं सुधरी, थोड़ा बुखार आने लगा। किंतु नेम-वृत तो छोड़नेवाले नहीं थे। वहीं दोनों जून गीत, स्नानध्यान, खेतीबारी देखना। दिन-दिन छीजने लगे। लोगों ने नहाने-धोने से मना किया, आराम करने को कहा। किंतु, हँसकर टाल देते रहे। उस दिन भी संध्या में गीत गाए, किंतु, मालूम होता, जैसे तागा टूट गया हो, माला का एक-एक दाना बिखरा हुआ। भोर में लोगों ने गीत नहीं सुना, जाकर देखा तो बालगोबिन भगत नहीं रहे, सिर्फ़ उनका पंजर पड़ा हैं!

बालगोबिन भगत ने क्रिया-कर्म संबंधी रीति एवं परंपराओं की चिंता न करते हुए अपनी पुत्रवधु से ही बेटे को आग दिलाई। श्राद्ध आदि के बाद उन्होंने पुत्रवधू को उसके भाई के साथ भेजते हुए कहा कि इसकी दूसरी शादी करा देना। किंतु बहू भगत जी की सेवा में ही अपने बाकी दिन बिताना चाहती थी। भगत जी ने समय और समाज एवं बहू की उम्र को देखते हुए उसे वहाँ रखने से मना कर दिया। बहू वहीं रहने की बात करती है तो भगत जी घर छोड़ कर जाने की बात कह देते हैं। बेचारी चली गई।

बालगोबिन भगत हर वर्ष गंगा-स्नान के लिए 30 कोस पैदल जाते और आते। वे रास्ते में किसी का सहारा लेते और न ही किसी का कुछ खाते। बुढ़ापे में भी जवानी जैसा जोश था। अंतिम बार जब नहाकर आए तो बीमार रहने लगे किंतु अपने नियम नहीं छोड़े। अंतिम संध्या के समय जब उन्होंने गाया तो आवाज में बिखराव आया हुआ था। सुबह के समय जब लोगों ने गीत नहीं सुना तो आकर देखा कि बालगोबिन भगत इस दुनिया से प्रस्थान कर चुके थे।

शब्दार्थ

मँझोला-न बहुत बड़ा न बहुत छोटा। कमली-कंबल। पतोहू-पुत्रवधू। रोपनी धान की रोपाई। कलेवा-सवेरे का जलपान। पुरवाई-पूरब की ओर से बहने वाली हवा। अधरतिया-आधी रात। खँजड़ी-ढफली के ढंग का आकार में उससे छोटा एक वाद्य यंत्र। निस्तब्धता-सन्नाटा। प्रभाती-प्रात: काल गाया जाने वाला गीत। लोही-प्रात: काल की लालिमा। कुहासा-काहरा। आवृत-ढका हुआ। कुश-एक प्रकार की नुकीली घास। बोदा- कम बुद्धि वाला। मतंग-बादल। संबल-सहारा।

इस पाठ को कंठस्थ कर निम्न प्रशनो के उत्तर दीजिए

Question 674 (32 of 104 Based on Passage)

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लेखक किनके कारण पाठक के हृदय पर तीखी चोट करते हैं?

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Question 675 (33 of 104 Based on Passage)

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कुल मिलाकर लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी जी को हिन्दी भाषा का क्या कहना किसी प्रकार से अनुचित नहीं होगा?

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Question 676 (34 of 104 Based on Passage)

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प्रस्तुत रेखाचित्र के माध्यम से लेखक रामव़ृक्ष बेनीपुरी ने किसका उद्घाटन किया है?

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Question 677 (35 of 104 Based on Passage)

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लेखक ने किस के आधार पर बताया है कि कोई व्यक्ति संन्यासी हो सकता है?

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Question 678 (36 of 104 Based on Passage)

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लेखक ने किसके माध्यम से संन्यासी होना नहीं बताया?

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Question 679 (37 of 104 Based on Passage)

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लेखक ने किस पर भी प्रहार किया है?

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Question 680 (38 of 104 Based on Passage)

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लेखक के अनुसार बालगोबिन भगत का चेहरा हमेंशा किससे जगमगाता रहता है?

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Question 681 (39 of 104 Based on Passage)

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भगत जी कौन-कौन से कपड़े पहनते थे?

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Question 682 (40 of 104 Based on Passage)

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भगत जी कौनसा टीका अपने माथे में लगाते थे?

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Question 683 (41 of 104 Based on Passage)

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लेखक के अनुसार भगत जी के घर में कौन-कौन थे?

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Question 684 (42 of 104 Based on Passage)

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भगत जी क्या काम करते थे?

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Question 685 (43 of 104 Based on Passage)

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भगत जी के घर से साहब का दरबार कितनी दूरी पर था?

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Question 686 (44 of 104 Based on Passage)

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लेखक दव्ारा रचित इस रेखाचित्र में किसका चित्रण किया गया है?

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