क्षितिज(Kshitij-Textbook)-Additional Questions [CBSE (Central Board of Secondary Education) Class-10 (Term 1 & 2 MCQ) Hindi]: Questions 1273 - 1283 of 1621
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Passage
पाठ 17
भदंत आनंद कौसल्यायन
″ हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने और उसको
गौरव के उच्च शिखर तक पहुँचाने की दिशा
में साधनारत साहित्यकारों में भदंत आनंद
कौसल्याय का स्थान अग्रणी हैं, इन्होंने अपनी
रचनाओं दव्ारा पाठक के अंतर्मन में, सत्य और
अहिंसा की अग्नि प्रज्जवलित करने में समर्थ
सिद्ध रहे। इनके दव्ारा रचित ग्रन्थ भारतीय
साहित्य की अमूल्य निधि है। ″
जीवन-परिचय- हिंदी के प्रसिद्ध संस्मरणकार श्री भदंत आनंद कौसल्यायन का जन्म पंजाब के अम्बाला जिले के सोहाना गाँव में सन् 1905 में हुआ था। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर बौद्ध धर्म अपना लिया और बौद्ध भिक्षु बन गए। बौद्ध भिक्षु होने के कारण उन्होंने विश्व-भ्रमण किया। उन्होंने हिंदी भाषा और साहित्य के विकास पर अधिक ध्यान दिया। इसके लिए उन्होंने पहले हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। वे काफ़ी समय तक राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के सचिव पद पर भी नियुक्त रहे। कौसाल्यायन जी गाँधी जी से विशेष रूप से प्रभावित थे। उन्होंने गाँधी जी के साथ वर्धा में एक लंबा समय बिताया। सन् 1988 में उनका स्वर्गवास हो गया।
प्रमुख रचनाएँ-श्री कौसाल्यायन जी ने बीस, पुस्तकें लिखी हैं। जिनमें मुख्य रूप से संस्मरण और रेखाचित्र रहे हैं। उनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित है-
भिक्षु के पत्र, जो भूल ना सका, आह! ऐसी दरिद्रता बहानेबाजी, यदि बाबा ना होते, रेल का टिकट, कहाँ क्या देखा।
साहित्यिक विशेषताएँ-गाँधी जी के सहकर्मी होने के कारण श्री भदंत आनंद कौसल्यायन के साहित्य पर गाँधी की जीवन शैली की छाप को स्पष्ट देखा जा सकता है। उनके साहित्य पर पर्यटन और संगठन के कार्यों की छाप भी देखी जाती है। वे लेखक के साथ-साथ अनुवादक के रूप में भी विख्यात हैं। उनके यात्रा वृतांतों में विभिन्न स्थानों और दृश्य का आकर्षक चित्र है।
भाषा-शैली-श्री कौसल्यायन जी की भाषा सरल सपाट एवं रोचक है। कहीं-कहीं तत्सम, तद्भव के साथ-साथ देशी और उर्दू के शब्दों का भी सुंदर प्रयोग किया है। उनके द्वारा प्रस्तुत हुए भाव आसानी से समझ में आज जाते हैंं। उन्होंने वर्णनात्मक शैली के साथ-साथ संवादात्मक और आत्मकथात्मक शैली का आकर्षक प्रयोग किया है।
संस्कृति
प्रस्तुत निबंध में भदंत आनंद कौसल्यायन ने अनेक उदाहरण देकर सभ्यता और संस्कृति के विषय में समझाया है। उन्हाेेंने यह भी बताया कि दोनों एक ही वस्तु हैं या अलग-अलग हैं। सभ्यता और संस्कृति अनेक जटिल प्रश्नों से सीखने के लिए प्रेरित किया है। उन्होंने मानव संस्कृति को अविभाज्य मानते हुए, सभ्यता को संस्कृति का ही अंग माना है। उन्हें इस बात का आश्चर्य और दुख होता है कि लोग संस्कृति का बँटवारा कर रहे हैं। उस सभ्यता और संस्कृति का भी कोई महत्व नहीं जो मनुष्य के लिए कल्याणकारी न हो।
जो शब्द सब से कम समझ में आते हैं और जिनका उपयोग होता है सब से अधिक; ऐसे दो शब्द है सभ्यता और संस्कृति।
इन दो शब्दों के साथ जब अनेक विशेषण लग जाते हैं, उदाहरण के लिए जैसे भौतिक-सभ्यता और आध्यात्मिक-सभ्यता, तब दोनों शब्दों का जो थोड़ा बहुत अर्थ समझ में आया रहता है, वह भी गलत-सलत हो जाता है। क्या ये एक ही चीज़ हैं अथवा दो वस्तुएँ? यदि दो हैं तो दोनों में क्या अंतर है? हम इसे अपने तरीके पर समझने की कोशिश करें।
कल्पना कीजिए उस समय की जब मानव समाज का अंग्नि देवता से साक्षात् नहीं हुआ था। आज तो घर-घर चूल्हा जलता है। जिस आदमी ने पहले पहल आग का आविष्कार किया होगा, वह कितना बड़ा आविष्कर्ता होगा।
अथवा कल्पना कीजिए उस समय की जब मानव को सुई-धागे का परिचय न था, जिस मनुष्य के दिमाग में पहले-पहल बात आई होगी कि लोहे के एक टुकड़े को घिसकर उसके एक सिरे को छेदकर और छेद में धागा पिरोकर कपड़े के दो टुकड़े एक साथ जोड़े जा सकते हैं, वह भी कितना बड़ा आविष्कर्ता रहा होगा।
लेखक बताता है कि सभ्यता और संस्कृति दो ऐसे शब्द है जिनका प्रयोग तो सबसे अधिक होता है लेकिन समझ में बहुत कम आते हैं और इनके साथ विशेषण लगने के बाद तो ये बिलकुल भी समझ में नहीं आते। प्रश्न उठता है कि सभ्यता और संस्कृति एक ही हैं या अलग-अलग और यदि अलग हैं तो इनमें क्या अंतर है? लेखक कहता है कि आग का आविष्कार करने वाला कोई महान आविष्कारक ही था। जिसके कारण आज घर-घर चूल्हा जल रहा है। या फिर सुई-धागे के विषय में कल्पना करें तो वह भी कितना बड़ा आविष्कारक होगा जिसने लोहे की पतली सूई बनाकर उसके एक सिरे में छेद करके कपड़े के दो टुकड़ों को जोड़ा।
इन्हीं दो उदाहरणों पर विचार कीजिए; पहले उदाहरण में एक चीज़ है किसी व्यक्ति विशेष की आग का आविष्कार कर सकने की शक्ति और दूसरी चीज़ है आग का आविष्कार। इसी प्रकार दूसरे सूई-धागे के उदाहरण में एक चीज़ है सूई-धागे का आविष्कार कर सकने की शक्ति और दूसरी चीज़ है सूई-धागे का आविष्कार।
जिस योग्यता, प्रवृति अथवा प्रेरणा के बल पर आग का व सूई-धागे का आविष्कार हुआ, वह है व्यक्ति विशेष की संस्कृति; और उस संस्कृति दव्ारा जो आविष्कार हुआ, जो चीज़ उसने अपने तथा दूसरों के लिए आविष्कृत की, उसका नाम सभ्यता।
जिस व्यक्ति में पहली चीज़ जितनी अधिक व जैसी परिष्कतृ मात्रा में होगी, वह व्यक्ति उतना ही अधिक व वैसा ही परिष्कृत आविष्कर्ता होगा।
एक संस्कृत व्यक्ति किसी नई चीज़ की खोज करता है; किंतु उसकी संतान को वह अपने पूर्वज से अनायास ही प्राप्त हो जाती है। जिस व्यक्ति की बुद्धि ने अथवा उसके विवेक ने किसी भी नये तथ्य का दर्शन किया, वह व्यक्ति ही वास्तविक संस्कृत व्यक्ति है और उसकी संतान जिसे अपने पूर्वज से वह वस्तु अनायास ही प्राप्त हो गई, वह अपने पूर्वज की भाँति सभ्य भले ही बन जाए, संस्कृत नहीं कहला सकता। एक आधुनिक उदाहरण लें। न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का आविष्कार किया। वह संस्कृत मानव था। आज के युग का भौतिक विज्ञान का विद्यार्थी न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण से तो परिचित है ही; लेकिन उसके साथ और भी अनेक बातों का ज्ञान प्राप्त है, जिनसे शायद न्यूटन अपरिचित ही रहा। ऐसा होने पर भी हम आज के भौतिक विज्ञान के विद्यार्थी को न्यूटन की अपेक्षा अधिक सभ्य भले ही कह सके; पर न्यूटन जितना संस्कृत नहीं कह सकते।
यहाँ लेखक आग और सूई-धागे के आविष्कार पर ही विचार करने के लिए कहता है। एक तरफ व्यक्ति विशेष की आविष्कार करने की शक्ति और दूसरी तरफ आग है। जिस सामर्थ्य और प्रेरणा से मनुष्य ने आविष्कार किया वह उसकी संस्कृति है और उस संस्कृति के आधार पर आविष्कार करके लोगों तक पहँचाया जाना उसकी सभ्यता है। जिस व्यक्ति की जितनी शुद्ध संस्कृति होगी, वह उतना ही शुद्ध आविष्कारक होगा। जो व्यक्ति अपनी बुद्धि या धैर्य के बल पर नई वस्तु की खोज करता है, वह सच्चा संस्कृत व्यक्ति है, जबकि वह जब संतान को उसके पूर्वज में मिलती है तो संतान संस्कृत नहीं कहला सकते। यदि हम न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का उदाहरण लें तो वह संस्कृत व्यक्ति है लेकिन इस सिद्धांत से ज्ञान प्राप्त करने वाले अधिक सभ्य विद्यार्थी संस्कृत नहीं कहला सकते।
आग के आविष्कार में कदाचित पेट की ज्वाला की प्रेरणा एक कारण रही। सुई-धागे के आविष्कार में शायद शीतोष्ण से बचने तथा शरीर को सजाने की प्रवृति का विशेष हाथ रहा। अब कल्पना कीजिए उस आदमी की जिसका पेट भरा है, जिसका तन ढँका है, लेकिन जब वह खुले आकाश के नीचे सोया हुआ राते के जगमगाते तारों को देखता है, तो उसको केवल इसलिए नींद नहीं आती क्योंकि वह यह जानने के लिए परेशान है कि आखिर यह मोती भरा थाल क्या है? पेट भरने और तन ढँकने की इच्छा मनुष्य की संस्कृति की जननी नहीं है। पेट भरा और तन भरा ढँका होने पर भी ऐसा मानव जो वास्तव में संस्कृत है, निठल्ला नहीं बैठ सकता। हमारी सभ्यता का एक बड़ा अंश हमें ऐसे संस्कृत आदमियों से ही मिला है, जिनकी चेतना पर स्थूल भौतिक कारणों का प्रभाव प्रधान रहा है, ंकंतु उसका कुछ हिस्सा हमें मनीषियों से भी मिला है, जिन्होंने तथ्य- विशेष को किसी भौतिक प्रेरणा के वशीभूत होकर नहीं, बल्कि उनके अपने अंदर की सहज संस्कृति के ही कारण प्राप्त किया है। रात के तारों को देखकर न सो सकने वाला मनीषी हमारे आज के ज्ञान का ऐसा ही प्रथम पुरस्कर्ता था।
भौतिक प्रेरणा, ज्ञानेप्सा-क्या ये दो मानव संस्कृति के माता-पिता हैं? दूसरे के मुँह में कौर डालने के लिए जो अपने मुँह का कौर छोड़ देता है, उसको यह बात क्यों और कैसे सूझती है? रोगी बच्चे को सारी रात गोद में लिए जो माता बैठी रहती है, वह आखिर ऐसा क्यो करती है? सुनते हैं कि रूस का भाग्य विधाता लेनिन अपने डैस्क में रखे हुए डबल रोटी के सुखे टुकड़े स्वयं न खाकर दूसरों को खिला दिया करता था। वह आखिर ऐसे क्यों करता था? संसार के मजदूरों को सुखी देखने का स्वप्न देखते हुए कार्लमार्क्स ने अपना सारा जीवन दुख में बिता दिया। और इन सब से बढ़कर आज नहीं, आज से ढाई हज़ार वर्ष पूर्व सिद्धार्थ ने अपना घर केवल इसलिए त्याग दिया कि किसी तरह तृष्णा के वशीभूत लड़ती-कटती मानवता सुख से रह सके।
लेखक बताता है कि आग के आविष्कार का कारण शायद भूख मिटाना रहा होगा और सूई-धागे का सरदी-गरमी से बचने और शरीर को सजाने के लिए हुआ होगा। लेखक अब इस आदमी को कल्पना करने को कहता है जो सभी तरह से तृप्त होकर अंतरिक्ष के विषय में जिज्ञासु है। लेखक उस व्यक्ति को सच्चा संस्कृत मानता है जिसका पेट भरा है और शरीर पर वस्त्र हैं फिर भी बेकार नहीं बैठा है। हमें संस्कृति का कुछ हिस्सा महान विचारकों से भी मिला है। अंदर की सहज संस्कृति के कारण ही ग्रह-नक्षत्रों का ज्ञान प्राप्त हुआ है। लेखक पूछता है कि संस्कृति क्या भौतिक प्रेरणा और ज्ञान प्राप्ति की इच्छा से ही उत्पन्न होती है और यदि ऐसा है तो फिर स्वयं दुख झेलकर दूसरों को सुख पहुँचाना, स्वयं अभावों में रहकर दूसरों को सुविधा देना क्या कहलाएगा? सिद्धार्थ ने भी घर इसी लिए छोड़ा था ताकि लोभ के वशीभूत व्यक्ति उनसे कुछ सीख लें।
हमारी समझ में मानव संस्कृति की जो योग्यता आग व सूई-धागे का आविष्कार कराती है; वह भी संस्कृति है; जो योग्यता तारों की जानकारी कराती है, वह भी है; और जो योग्यता किसी महामानव से सर्वस्व त्याग कराती है, वह भी संस्कृति है।
और सभ्यता? सभ्यता है संस्कृति का परिणाम। हमारे खाने-पीने के तरीके, हमारे ओढ़ने पहनने के तरीके, हमारे गमनागमन के साधन, हमारे परस्पर कट मरने के तरीके; सब हमारी सभ्यता है। मानव की जो योग्यता उससे आत्म-विनाश के साधनों का आविष्कार कराती है, हम उसे उसकी संस्कृति कहें या असंस्कृति? और जिन साधनों के बल पर वह दिन-रात आत्म-विनाश में जुटा हुआ है, उन्हें हम उसकी सभ्यता समझें या असभ्यता? संस्कृति का यदि कल्याण की भावना से नाता टूट जाएगा तो वह असंस्कृति होकर ही रहेगी और ऐसी संस्कृति का अवश्यभावी परिणाम असभ्यता के अतिरिक्त दूसरा क्या होगा?
हम अनेक बार संस्कृति और सभ्यता के खतरे में होने की बात सुनते हैं। हिटलर के आक्रमण के कारण मानव संस्कृति तो खतरे में पड़ी कही ही जाती है, लेकिन उसमें ज्य़ादा ज़ोर से हम अपने देश में “हिंदू-संस्कृति” अथवा “मुस्लिम-संस्कृति” के लिए खतरे की बात सुनते हैं। ताजिये को निकालने के लिए पीपल का तना कट गया, तो “हिंदू-संस्कृति” खतरे में पड़ जाती है और मस्जिद के सामने बाजा बज गया तो “मुस्लिम-संस्कृति” कहीं की नहीं रहती? हम न तो “हिंदू-संस्कृति” को ही समझते हैं, न “मुस्लिम-संस्कृति” को। “हिंदुओं की संस्कृति” या “मुसलमानों-संस्कृति” कुछ समझ में भी आती है, लेकिन यह “हिंदू-संस्कृति” और “मुस्लिम-संस्कृति” क्या बला है? लेकिन जिस देश में पानी और रोटी का भी हिंदू -मुस्लिम बँटवारा मौजूद हो, उसमें संस्कृति के बँटवारें पर क्या आश्चर्य है?
लेखक के अनुसार आग व सूई-धागे के आविष्कार से लेकर तारों का ज्ञान लेने वाला, महापुरुषों द्वारा सर्वस्य त्याग कराने की योग्यता संस्कृति है। संस्कृति से ही सभ्यता मिलती है। हमारा जीने का तरीका, आने -जाने के साधन, आपसी व्यवहार यह सब हमारी सभ्यता है। मानव की क्षमता जब विनाश के आविष्कार कर अमंगल की भावना से संलिप्त हो जाएगी तब वह असंस्कृति हो जाएगी और उसके द्वारा विनाश के साधनों पर बल दिया जाना निश्चित ही असभ्यता होगी। कई बार हम यह सुनते हैं कि हमारी सभ्यता और संस्कृति खतरे में है। लेकिन आज देश में धर्म के नाम पर अलग-अलग संस्कृति बनी हुई हैं। कहीं हिंदू संस्कृति खतरें है तो कही मुस्लिम संस्कृति। यह हिंदू संस्कृति और मुस्लिम संस्कृति आखिर हैं क्या, कुछ समझ में नहीं आता। लेखक का कहना है कि जिस प्रकार हिंदू और मुस्लिम के आधार पर रोटी-पानी बँटे हुए हैं उसी तरह संस्कृति के बँटने में कोई हैरानी नहीं है।
“हिंदू-संस्कृति” में भी फिर “प्राचीन-संस्कृत” और “नवीन-संस्कृति” का बँटवारा मौजूद है। वर्ण-व्यवस्था के नाम पर समाज के बड़े कर्मठ हिस्से को पददलित रखना ही कुछ लोगों की दुष्टि में प्राचीन “हिंदू-संस्कृति” है। वे उसी की रक्षा के लिए स्वराज की स्थापना मानते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि संस्कृति की छीछालेदर की हद नहीं। संस्कृति के नाम से जिस कूड़े-करकट के ढेर का बोध होता है, वह न संस्कृति है न रक्षणीय वस्तु। क्षण-क्षण परिवर्तन होने वाले संसार में किसी भी चीज़ को पकड़कर बैठा नहीं जा सकता। मानव ने जब-जब प्रज्ञा और मैत्री भाव से किसी नए तथ्य का दर्शन किया है तो उसने कोई वस्तु नहीं देखी है, जिसकी रक्षा के लिए दलबंदियों की ज़रूरत है।
मानव संस्कृति एक अविभाज्य वस्तु है और उसमें जितना अंश कल्याण का है, वह अकल्याणकार की अपेक्षा श्रेष्ठ ही नहीं स्थायी भी है।
लेखक बताता है कि मानव संस्कृति में हिंदू संस्कृति है और उसमें भी नवीन संस्कृति और प्राचीन संस्कृति है। प्रचीन हिंदू संस्कृति में वे लोग आते हैं जो जाति-भेद के आधार पर मेहनतशील वर्ग को अपने अधीन रखते थे। लेखक कहता है कि आज संस्कृति की दुर्दशा की कोई सीमा नहीं है और वह उस कूड़े के ढेर के समान होती जा रही है जिसकी देख-रेख करनी अनिवार्य नहीं है। इस संसार में प्रतिपल परिवर्तन होते रहते हैं। मानव द्वारा बुद्धि और मित्रता के भाव से ऐसी कोई वस्तु नहीं बनाई जिसकी रक्षा के लिए किसी दल विशेष की आवश्यकता पड़े। मानव संस्कृति एक ऐसी वस्तु है जिसे बाँटा नहीं जा सकता। यह मंगलकारी, श्रेष्ठ और स्थायी है।
शब्दार्थ
आध्यात्कि-परमात्मा। साक्षात-आँखों के सामने। अविष्कर्ता-आविष्कार करने वाला। परिष्कृत-सजाया हुआ, शुद्ध किया हुआ। अनायास-बिना प्रयास के। कदाचित-कभी, शायद। शीतोष्ण-ठंडा और गरम। निठल्ला-बेकार, अकर्मण्य। मनीषियों -विदव्ानों, विचारशीलों। वशीभूत-अधीन, पराधीन। तृष्णा-प्यास, लोभ। अवश्यभावी-जिसका होना निश्चित हो। वर्ण-व्यवस्था-वर्ण-विभाग। छीछालेदर-दुर्दशा, फ़जीहत। अविभाज्य-जो बाँटा न जा सके।
Question 1273 (110 of 110 Based on Passage)
Question MCQ▾
लेखक दव्ारा रचित प्रस्तुत निबंध में आज के युग का विद्यार्थी किस विज्ञान में न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण से परिचित हैं?
Choices
Choice (4) | Response | |
---|---|---|
a. | गृह | |
b. | जीव | |
c. | भौतिक | |
d. | रासायनिक |
Passage
(1)
बादल, गरजो! -
घेर घेर घोर गगन, धाराधर ओ!
ल्लित ललित, काले घुँघराले,
बाल कल्पना के से पाले,
विद्युत-छबि उर में, कवि, नवजीवन वाले!
वज्र, छिपा, नूतन कविता
फिर भर दो-
बादल, गरजो!
Question 1274 (1 of 5 Based on Passage)
Question 1275 (2 of 5 Based on Passage)
Describe in Detail Subjective▾
कवि निराला जी दव्ारा रचित प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने किसको संबोधित किया है?
EditExplanation
प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला द्वारा रचित आह्वान गीत - ‘उत्साह’ से लिया गया है। यहाँ कवि निराला ने बादल को प्रस्तुत किया है। उस बादल को बुलाकर कवि ने कहा है-
व्याख्या- हे बादल! तुम गरजना करते हुए आओ! तुम उमड़-घुमड़ कर तेज ध्वनि करते हुए पूरे आकाश को घेरते हुए सब जगह छा जाओ। अरे ओ बादल! तुम सुदंर, सुदंर और घुमने वाले काले रंग वाल…
… (782 more words) …
Question 1276 (3 of 5 Based on Passage)
Describe in Detail Subjective▾
कवि निराला जी दव्ारा रचित प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने बादल का आह्वान करते हुए क्या कहा है?
EditExplanation
कवि बादल से कह रहा है कि अरे बादल! तुम गरजना करते हुए आओ! तुम उमड़-घुमड़ कर तेज ध्वनि करते हुए पूरे आकाश को घेरते हुए सब जगह छा जाओ। अरे ओ बादल! तुम सुदंर, सुदंर और घुमने वाले काले रंग वाले हो और तुम बच्चों की अद्भूत कल्पनाओं की पतवारों (नांव चलाने वाली डंडा) तथा पालों के समान दिखाई देते हो। हे नया जीवन देने वाले बादल रूपी कवि! तुम्हारे मन में बिजल…
… (1462 more words) …
Question 1277 (4 of 5 Based on Passage)
Describe in Detail Subjective▾
कवि निराला जी दव्ारा रचित प्रस्तुत पद्यांश के भाव-सौंदर्य क्या हैं?
EditExplanation
कवि निराला जी दव्ारा रचित प्रस्तुत पद्यांश के भाव-सौंदर्य यह है कि इस पद्यांश में कवि ने बादल को व्यक्ति की इच्छा पूरी करने वाला बताया है ताकि व्यक्ति की इच्छा पूरी होने पर उसे एक नया जीवन मिल सके। अर्थात बादल को इच्छापूर्ति व नयाजीवन देने वाला बताया हैं।
क्योंकि-हर इंसान की इच्छाएँ अलग-अलग होती है व इच्छा पूरी होने से उसका नयाजीवन शुरू हो जाता है।
प…
… (1188 more words) …
Question 1278 (5 of 5 Based on Passage)
Describe in Detail Subjective▾
कवि निराला जी दव्ारा रचित प्रस्तुत पद्यांश के शिल्प-सौंदर्य क्या हैं?
EditExplanation
कवि निराला जी दव्ारा रचित प्रस्तुत पद्यांश शिल्प-सौंदर्य यह है कि इसमें कवि को बादल बहुत प्रिय लगते है वह बादल कवि का अच्छा विषय बन गया है। इसके साथ में अलंकारों, मानवीकरण, लय, व भाषा आदि का बहुत ही सुंदर चित्रण किया है।
क्योंकि-ताकि कवि का उपरोक्त शिल्प-सौंदर्य पाठक को पढ़ने में आनंद आ जाए।
प्रसंग- प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला द…
… (1118 more words) …
Question 1279
Describe in Detail Subjective▾
जयशंकर प्रसाद जी दव्ारा रचित उन्होंने अपनी रचनाओं में किसका गम्भीरता से वर्णन किया है?
EditExplanation
उन्होंने उन्होंने अपनी रचनाओं में प्राचीन भारतीय साहित्य, संस्कृति और प्रेमदर्शन का गम्भीरता से वर्णन किया है।
क्योंकि-ताकि उपरोक्त बातों का ज्ञान भी लोगों को …
… (735 more words) …
Question 1280
Explanation
वे मस्तमौला और फक्कड़ स्वभाव के थे।
क्योंकि -ऐसेे कवि पूर्ण रूप से स्वतंत्र होते है।
“प्रख्यात कवि नागार्जुन जी के हृदय में शोषित व दलित वर्ग के प्रति अपार संवेदना देखने को मिलती है। उन्होंने अपनी कविताओं में पीड़ित व त्रस्त व्यक्तियों के प्रति अद्धितीय सहानुभूति प्रदर्शित किया है। साथ ही अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने की भी प्रेरणा दी है।”
जीवन परिचय:-…
… (1333 more words) …
Question 1281
Write in Short Short Answer▾
नागार्जुन दव्ारा रचित काव्यों में और किस-किसका रूप देखने को मिलता हैं?
EditQuestion 1282
Explanation
शिक्षा ग्रहण करने के बाद नागार्जुन को विदेश जाने का अवसर भी मिला।
क्योंकि-कभी-कभी कोई व्यक्ति अच्छा पढ़ने के बाद उसे देश से बाहर जाने का अवसर मिलता है।
“प्रख्यात कवि नागार्जुन जी के हृदय में शोषित व दलित वर्ग के प्रति अपार संवेदना देखने को मिलती है। उन्होंने अपनी कविताओं में पीड़ित व त्रस्त व्यक्तियों के प्रति अद्धितीय सहानुभूति प्रदर्शित किया है। सा…
… (1411 more words) …
Question 1283
Explanation
उन्हें छायावादी काव्य धारा का प्रवर्तक माना जाता है।
क्योंकि-उनकी कविताएँ सबसे अधिक श्रेष्ठ रही हैं।
काव्यगत विशेषताएँ- जयशंकर प्रसाद जी नाटक और…
… (656 more words) …