क्षितिज(Kshitij-Textbook) [CBSE (Central Board of Secondary Education) Class-10 (Term 1 & 2 MCQ) Hindi]: Questions 574 - 587 of 1777
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Passage
पाठ 12
यशपाल
″ यशपाल हिन्दी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कहानीकारों
में से एक हैं। अब तक इनके अनेकानेक कहानी
संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। जो कि भाव पक्ष व
शिल्प पक्ष की दृष्टिकोण से काफ़ी उच्चकाटि
के हैं। यशपाल मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित
कहानीकार हैं। इनकी कहानियों में यथार्थवादी
परम्परा का अनुकरण किया गया हैं। उन्होंने
समाज में व्याप्त कुरीतियों पर जमकर प्रहार
किया है, जो कि सराहनीय है। ″
जीवन-परिचय- हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध साहित्यकार यशपाल का जन्म 3 दिसम्बर, 1903 को पंजाब के फिरोज़पुर छावनी में हुआ। उनके पूर्वज हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के निवासी थे। उनके पिता का नाम हीरालाल और माता का नाम प्रेम देवी था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा कांगड़ा के गुरुकुल में हुई। उन्होंने सन् 1921 में फिरोज़पुर से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज से बी. ए. तक शिक्षा ग्रहण की। कॉलेज में ही उनकी भेंट सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी भगत सिंह और सुखदेव से हुई। उन्होंने अपने सहपाठी लाला लाजपत राय के साथ स्वदेशी आंंदोलन में जमकर भाग लिया। उनका झुकाव मार्क्सवाद की और बढ़ता गया। उन्हें दिल्ली में बम बनाते हुए गिरफ्तार कर लिया गया तथा 7 अगस्त, 1936 को बरेली जेल में ही उनका विवाह प्रकाशवती कपूर से हुआ। वे कई बार विदेश यात्रा पर गए। उन्होंने साहित्यकार और प्रकाशक दोनों रूपों में हिन्दी साहित्य की सेवा की। 26 दिसम्बर, 1976 को उनका स्वर्गवास हो गया।
प्रमुख रचनाएँ-यशपाल की प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-
उपन्यास-दादा कामरेड, देशद्रोही, पार्टी कामरेड, दिव्या, मनुष्य के रूप, अमिता, क्यों फँसे, मेरी तेरी उसकी बात, बारह घण्टे, अप्सरा का श्राप, झूठा-सच।
कहानी-संग्रह-पिंजरे की उड़ान, तर्क का तूफान, ज्ञानदान, वो दुनिया, अभिशप्त, फूलों का कुर्ता, धर्मयुद्ध, चित्र का शीर्षक, उत्तराधिकारी, उत्तमी की माँ, सच बोलने की भूल।
नाटक-नशे नशे की बात, रूप की परख, गुडबाई दर्देदिल।
व्यंग्य लेख-चक्कर क्लब।
संस्मरण-सिंहावलोकन।
विचारात्मक निबंध-न्याय का संघर्ष, मार्क्सवाद, रामराज्य की कथा।
साहित्यिक विशेषताएँ- यशपाल जी की रचनाओं पर मार्क्सवाद का प्रभाव स्पष्ट झलकता है। उनकी रचनाओं में सामाजिक, ऐतिहासिक और पौराणिक तथ्यों के दर्शन होते हैं। उन्होंने जीवन की वास्तविकता को महसुस कर यथार्थ का वर्णन किया है। उनकी अधिकांश कहानियाँ चिन्तन प्रधान हैं।
भाषा-शैली-यशपाल की भाषा शैली में स्वाभाविकता एवं व्यवहारिकता का गुण विद्यमान है। उनकी भाषा अत्यंत सहज, सरल और पात्रानुकूल है। उन्होंने वर्णनात्मक, संवाद प्रधान प्रभावशाली शैली को अपनाया है। उन्होंने विषयानुसार उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रयोग किया है। आम आदमी की भाषा का प्रयोग करने के कारण यशपाल का साहित्य जनसाधारण में अत्यंत लोकप्रिय है।
लखनवी अंदाज
प्रस्तुत कहानी के माध्यम से लेखक यशपाल ने यह सिद्ध करना चाहा है कि बिना विचार, कथ्य और पात्रों के भी कहानी लिखी जा सकती है। यहाँ उन्होंने एक लखनवी नवाब के माध्यम से उस सामन्ती वर्ग पर कटाक्ष किया है जो वास्तविकता से अनभिज्ञ रहते हुए बनावटी जीवन शैली का आदी है। वर्तमान में भी परजीवी संस्कृति को देखा जा सकता है।
मुफ़स्सिल की पैसेंजर ट्रेन चल पड़ने की उतावली में फूँकार रही थी। आराम से सेंकड क्लास में जाने के लिए दाम अधिक लगते हैं। दूर तो जाना नहीं था। भीड़ से बचकर, एकांत में नई कहानी के सबंध में सोच सकने और खिड़की से प्राकृतिक दृश्य देख सकने के लिए टिकट सेकंड क्लास का ही ले लिया।
गाड़ी छूट रही थी। सेकंड क्लास के एक छोटे डिब्बे को खाली समझकर, जरा दौड़कर उसमें चढ़ गए। अनुमान के प्रतिकूल डिब्बा निर्जन नहीं था। एक बर्थ पर लखनऊ की नवाबी नस्ल के एक सफ़ेदपोश सज्जन बहुत सुविधा से पालथी मारे बैठे थे। सामने दो ताज़े-चिकने खीरे तौलिए पर रखे थे। डिब्बे में हमारे सहसा कूद जाने से सज्जन की आँखों में एकांत चिंतन में विघ्न का असंतोष दिखाई दिया। सोचा, हो सकता है, यह भी कहानी के लिए सुझा की चिंता में हो या खीरे-जैसी अपदार्थ वस्तु का शौक करते देखे जाने के संकोच में हो।
नवाब साहब ने संगति के लिए उत्साह नहीं दिखाया। हमने भी उनके सामने की बर्थ पर बैठकर आत्म-सम्मान में आँखे चुरा लीं।
ठाली बैठे, कल्पना करते रहने की पुरानी आदत है। नवाब साहब की असुविधा और संकोच के कारण का अनुमान करने लगे। संभव है, नवाब साहब ने बिलकुल अकेले यात्रा कर सकने के अनुमान में किफ़ायत के विचार से सेंकड क्लास का टिकट खरीद लिया हो और अब गवारा न हो कि शहर को कोई सफ़ेदपोश उन्हें मँझले दर्जे में सफ़र करता देखे। … अकेले सफ़र का वक्त काटने के लिए ही खीरे खरीदे होंगे और अब किसी सफ़ेदपोश के सामने खीरा कैसे खाएँ?
लेखक बताता है कि वह भीड़ से बचने के लिए दूसरे दर्जे की टिकट लेकर रेलगाड़ी के एक डिब्बे में सवार हुआ। डिब्बे में उन्होंने देखा कि एक लखनऊ के नवाबों जैसा भद्र व्यक्ति पहले से ही बैठा था और उसने अपने पास दो खीरे रखे हुए थे। उस भद्र पुरुष के चेहरे पर लेखक को चिंता और संकोच का भाव दिखाई देता है। नवाब साहब में सहयात्री मिलने की उत्सुकता ने देख लेखक सामने की बर्थ पर बैठ गया। खाली समय में वे कल्पना करने का काम करते हैं इसलिए नवाब साहब के संकोच और असुविधा के विषय में सोचने लगे। उन्होंने अनुमान लगाया कि नवाब साहब ने अकेले ही यात्रा करने के उद्देश्य से दूसरे दूर्जे का टिकट खरीदा होगा और सफ़र काटने के लिए खीरे खरीदे होगें। लेकिन लेखक को देखकर शायद वह संकोच में पड़ गया।
हम कनखियों से नवाब साहब की ओर देख रहे थे। नवाब साहब कुछ देर गाड़ी की खिड़की से बाहर देखकर स्थिति पर गौर करते रहे।
‘ओह’ नवाब साहब ने सहसा हमें संबोधन किया, ‘आदाब-अर्ज’ , जनाब, खीरे का शौक फ़रमाएँगे?
नवाब साहब का सहसा भाव-परिवर्तन अच्छा नहीं लगा। भाँप लिया, आप शराफ़त का गुमान बनाए रखने के लिए हमें भी मामूली लोगों की हरकत में लथेड़ लेना चाहते हैं। जवाब दिया, ‘शुक्रिया, किबला शौक फरमाएँ।’
नवाब साहब ने फिर एक पल खिड़की से बाहर देखकर गौर किया और दृढ़ निश्चय से खीरों के नीचे रखा तौलिया झाढ़कर सामने बिछा लिया। सीट के नीचे से लोटा उठाकर दोनों खीरों को खिड़की से बाहर धोया और तौलिए से पोंछ लिया। जेब से चाकू निकाला। दोनों खीरों के सिर काटे और उन्हें गोदकर झाग निकाला। फिर खीरों को बहुत एहतियात से छीलकर फाँकों को करीने से तौलिए पर सजाते गए।
लखनऊ स्टेशन पर खीरा बेचने वाले खीरे के इस्तेमाल का तरीका जानते हैं। ग्राहक के लिए जीरा-मिला नमक और मिर्ची पिसी हुई लाल मिर्च की पुड़िया भी हाज़िर कर देते हैं।
नवाब साहब ने बहुत करीने से खीरे की फाको पर जीरा-मिला नमक और लाल मिर्च की सुखी बुरक दी। प्रत्येक भाव-भंगिमा और जबड़ों के स्फुरण से स्पष्ट था कि उस प्रक्रिया में उनका मुख खीरे के रसास्वादन की कल्पना से प्लावित हो रहा था।
नवाब साहब ने स्थिति को भाँपते हुए लेखक से नमस्कार करके खीरे खाने के विषय में पूछा। नवाब के बदले हुए स्वभाव को देखकर लेखक ने समझ लिया कि वह उन्हें सामान्य लोगों की तरह समझ रहा है और उसे मना कर दिया। नवाब साहब ने खीरों को धोया और ऊपरी हिस्सा काटकर उनको रगड़ा। फिर चाकू से छीलकर उन्हें फांकों में काट लिया। उन पर जीरा-मिला नमक और लाल मिर्च डाली। खीरों के रसास्वादन की कल्पना से नवाब साहब के मुँह में पानी आ रहा था।
हम कनखियों से देखकर सोच रहे थे, मियाँ रईस बनते हैं, लेकिन लोगों की नज़रों से बच सकने के खयाल में अपनी असलियत पर उतर आए हैं।
नवाब साहब ने फिर एक बार हमारी ओर देख लिया, ‘वल्लाह, शौक कीजिए, लखनऊ का बालम खीरा है!’
नमक-मिर्च छिड़क दिये जाने से ताज़े खीरे की पनियाती फाँके देखकर पानी मुँह में जरूर आ रहा था, लेकिन इंकार कर चूके थे। आत्म-सम्मान निबाहना ही उचित समझा, उत्तर दिया, ‘शुक्रिया, इस वक्त तलब महसूस नहीं हो रही, मेदा भी ज़रा कमजोर है, किबला शौक फरमाएँ।’
नवाब साहब ने सतृष्ण आँखों से नमक-मिर्च के संयोग से चमकती खीरे की फाँकों की ओर देखा। खिड़की के बाहर देखकर दीर्घ निश्वास लिया। खीरे की एक फाँक उठाकर होंठो तक ले गए। फाँक को सूँघा। स्वाद के आनंद में पलकें मुँद गईं। मुँह में भर आए पानी का घूँट गले उतर गया। तब नवाब साहब ने फाँक को खिड़की से बाहर छोड़ दिया। नवाब साहब खीरे की फाँकों को नाक के पास ले जाकर, वासना से रसास्वादन कर खिड़की के बाहर फेंकते गए।
लेखक सोच रहा था कि वैसे तो रईस बनने का ढ़ोंग कर रहा है और लोगों से नज़रे बचाकर खीरे खा रहा है। नवाब साहब ने फिर लेखक से खीरे खाने के विषय में पूछा। नमक मिर्च लगे ताजे खीरें देखकर लेखक के मुँह में पानी तो आ रहा था किंतु स्वाभीमान को बचाए रखने के लिए यह कहते हुए मना कर दिया कि इच्छा नहीं है और मेरा अमाशय भी कमज़ोर है। फिर नवाब साहब ने प्यासी आँखों से खीरें की फाँकों को देखा और एक लंबी साँस लेकर खीरे की एक फाँक को नाक तक ले जाकर सूँघा। स्वाद का आनंद लेकर और मुँह में आए पानी को पी कर फाँक को खिड़की से बाहर फेंक दिया। इस तरह उन्होंने सभी फाँके सूँघकर बाहर फेंक दी।
नवाब साहब ने खीरे की सब फाँकों को खिड़की के बाहर फेंककर तौलिए से हाथ और होंठ पोंछ लिए और गर्व से गुलाबी आँखों से हमारी ओर देख लिया, मानो कह रहे हों- यह है खानदानी रईसो का तरीका!
नवाब साहब खीरे की तैयारी और इस्तेमाल से थककर लेट गए। हमें तसलीम में सिर खम कर लेना पड़ा-यह है खानदानी तहज़ीब, नफ़ासत और नज़ाकत!
खीरे की सारी फाँके सूँघकर बाहर फेंकने के बाद नवाब साहब ने तौलिए से हाथ-मुँह पोंछते हुए गर्व के साथ लेखक की ओर ऐसे देखा जैसे वह स्वयं को खानदानी रईस बता रहा हो। नवाब साहब लेट गए और लेखक ने, यह सोचते हुए कि यही है खानदानी शिष्टता, स्वच्छता और कोमलता, अपना सिर उसके सम्मान में झुका लिया।
हम गौर कर रहे थे, खीरा इस्तेमाल करने के इस तरीके को खीरे की सुगंध और स्वाद की कल्पना से संतुष्ट होने का सूक्ष्म, नफ़ीस या एब्स्ट्रैक्ट तरीका ज़रूर कहा जा सकता है परंतु क्या ऐसे तरीके से उदर की तृप्ति भी हो सकती है?
नवाब साहब की ओर से भरे पेट के ऊँचे डकार का शब्द सुनाई दिया और नवाब साहब ने हमारी ओर देखकर कह दिया, ‘खीरा लज़ीज होता है लेकिन होता है सकील, नामुराद मेदे पर बोझ डाल देता है।’
ज्ञान-चक्षु खुल गए! पहचाना -ये हैं नई कहानी के लेखक!
खीरे की सुगंध और स्वाद की कल्पना से पेट भर जाने का डकार आ सकता है तो बिना विचार, घटना और पात्रों के, लेखक की इच्छा मात्र से ‘नई कहानी’ क्यों नहीं बन सकती?
लेखक यह सोच रहा था के क्या इस सुगंध और स्वाद के सूक्ष्म, बढ़िया और अमूर्त तरीके से पेट की तृप्ति हो सकती है? तभी नवाब साहब ने भरे पेट जैसी डकार ली और लेखक से कहा कि खीरा स्वादिष्ट तो होता है किंतु अमाशय के लिए भारी होता है। लेखक की सोचने की शक्ति जागृत हो गई, उसे नवाब साहब एक नई कहानी का लेखक प्रतीत हुआ। उन्होंने सोचा कि खीरे खाए बिना ही पेट भर सकता है और डकार आ सकती है तो फिर बिना विचार, घटना और पात्रों के एक नई तरह की कहानी भी लिखी जा सकती है।
शब्दार्थ
मुफ़स्सिल-केंद्रस्थ नगर के इर्द-गिर्द के स्थान। सफ़ेदपोश-भद्र व्यक्ति। किफायत-मितव्यता, समझदारी से उपयोग करना। आदाब अर्ज- अभिवादन का एक ढंग। गुमान-भ्रम। एहतियात- सावधानी। बुरक देना- छिड़क देना। स्फुरण- फड़कना, हिलना। प्लावित-पानी भर जाना। पनियाती-रसीली। मेदा-अमाशय। तसलीम-सम्मान में। तहज़ीब-शिष्टता। नफासत- स्वच्छता। नज़ाकत- कोमलता। नफीस- बढ़िया। एब्स्ट्रैक्ट-सूक्ष्म, जिसका भौतिक अस्तित्व न हो, अमूर्त।
सकील- आसानी से न पचने वाला।
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