क्षितिज(Kshitij-Textbook) [CBSE (Central Board of Secondary Education) Class-10 (Term 1 & 2 MCQ) Hindi]: Questions 364 - 378 of 1777

Choose Programs:

🎯 2202 Long Answer, 93 MCQs (& PYQs) with Full Explanations (2024-2025 Exam)

Rs. 1650.00 -OR-

3 Year Validity (Multiple Devices)

CoverageDetailsSample Explanation

Help me Choose & Register (Watch Video) Already Subscribed?

Passage

पाठ 14 मन्नू भंडारी

″ आधुनिक साहित्यकारों में मन्नू भंडारी को अति

विशिष्ट स्थान प्राप्त है। हृदय तथा बुद्धि तत्व से

युक्त उनकी रचनाएँ हिंदी साहित्य जगत की

अमूल्य धरोहर हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में

सामाजिक व पारिवारिक रिश्तों को जिस प्रकार

से विश्लेषित किया है, वह अकाट्‌य एवं अद्धितीय

है। सरल एवं सरस भाषा उनकी रचनाओं की

प्रमुख विशेषता रही है। ″

जीवन-परिचय- हिंदी-साहित्य की सुप्रसिद्ध कहानी-लेखिका मन्नू भंडारी का जन्म 2 अप्रैल, 1931 में मध्यप्रदेश के भानपुरा नामक गाँव में हुआ था। उनका मूल नाम महेन्द्र कुमारी था। उन्होंने स्नातक तक की शिक्षा-दीक्षा राजस्थान के अजमेर शहर से प्राप्त की। हिंदी में एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने कोलकाता तथा दिल्ली में अध्यापन कार्य किया। अवकाश प्राप्ति के बाद आजकल वे दिल्ली में स्वतंत्र लेखन कार्य में लगी हुई हैं। नई कहानी आंदोलन में उन्होंने सक्रीय योगदान दिया। उन्हें हिंदी अकादमी दिल्ली के शिखर सम्मान, बिहार सरकार, भारतीय भाषा परिषद् कोलकाता, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी और उत्तर-प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा पुरस्कृत किया गया।

प्रमुख रचनाएँ-मन्नू भंडारी मुख्य रूप से कहानी लेखिका हैं। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-

कहानी-संग्रह- मैं हार गई, एक प्लेट सैलाब, यही सच है, तीन निगाहों की एक तस्वीर, आँखों देखा झूठ, त्रिशंकु आदि।

उपन्यास- आपका बंटी, महाभोज, स्वामी, एक इंच मुस्कान (राजेन्द्र यादव के साथ)

पटकथाएँ- रजनी, स्वामी, निर्मला, दर्पण।

साहित्यिक विशेषताएँ- मन्नू भंडारी एक सिद्धहस्त कथाकार हैं। नई कहानी आंदोलन में उन्होंने अपना विशेष योगदान दिया। उन्होंने अपनी रचनाओं में सामाजिक जीवन का यथार्थ चित्रण किया है। उन्होंने पारिवारिक जीवन, नारी-जीवन एवं विभिन्न वर्गो के जीवन की विसंगतियों को विशेष आत्मीय अभिव्यक्ति प्रदान की है। मन्नू जी अपनी रचनाओं में व्यंग्य, संवेदना और आक्रोश को मनोवैज्ञानिक आधार बनाया है।

भाषा शैली- मन्नू भंडारी की भाषा शैली सरल, सहज, स्वाभाविक और भावाभिव्यक्त में सक्षम है। उनकी रचनाओं में बोलचाल की हिंदी भाषा के साथ-साथ लोक प्रचलित उर्दू, अंग्रेजी, देशज शब्दों की बहुलता देखी जा सकती है। उन्होंने वर्णनात्मक शैली के अतिरिक्त समास और संवाद शैली का भी प्रयोग किया है। उनके संवाद छोटे-छोटे किन्तु चुस्त और प्रासंगिक हैं। कहीं-कहीं उनके कथन काव्यात्मक प्रतीत होते हैं। उनका वाक्य-विन्यास व्याकरण-सम्मत एवं सरल है। इन सबसे यह सिद्ध होता है कि उनका भाषा पर पूर्ण अधिकार है।

एक कहानी यह भी

प्रस्तुत आत्मकथा में लेखिका मन्नू भंडारी ने क्रमबद्ध आत्मकथा न लिखकर उन व्यक्तियों और घटनाओं का उल्लेख किया है जो उसके लेखकीय जीवन के निर्माण और विकास में सहायक बने। उन्होंने अपने पिताजी, कॉलेज की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल के साथ-साथ अपनी किशोरावस्था से जुड़ी घटनाओं को लिखा है। शीला अग्रवाल ने तो उनके लेखकीय जीवन के निर्माण में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई। यहाँ लेखिका ने पारिवारिक बंधनों बंधी लड़की को अनेक पड़ावों से गुजारते हुए एक असाधारण क्रांतिकारी लड़की के रूप में प्रकट किया है। लेखिका ने 1946 - 47 की आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। उनके द्वारा किए गए विरोध-प्रदर्शन का उत्साह, संगठन क्षमता बड़ी अद्भुत थी।

जन्मी तो मध्यप्रदेश के भानपुरा गाँव में थी, लेकिन मेरी यादों का सिलसिला शुरू होता है अजमेर के ब्रह्यपुरी मोहल्ले के उस दो-मंजिला मकान से, जिसकी ऊपरी मंजिल में पिता जी का साम्राज्य था, जहाँ वे निहायत अव्यवस्थित ढंग से फैली-बिखरी पुस्तकों-पत्रिकाओं और अखबारों के बीच या तो कुछ पढ़ते रहते थे या फिर ‘डिक्टेशन’ देते रहते थे। नीचे हम सब भाई-बहिनों के साथ रहती थीं हमारी बेपढ़ी-लिखी व्यक्तित्वहीन माँ, सवेरे से शाम तक हम सबकी इच्छाओं और पिता जी की आज्ञाओं का पालन करने के लिए सदैव तत्पर। अजमेर से पहले पिता जी इंदौर में थे, जहाँ उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी, सम्मान था, नाम था। कांग्रेस के साथ-साथ वे समाज-सुधार के कामों से भी जुड़े हुए थे। शिक्षा के वे केवल उपदेश ही नहीं देते थे, बल्कि उन दिनों आठ-आठ, दस-दस विद्यार्थियों को अपने घर रख कर पढ़ाया है, जिनमें से कई तो बाद में ऊँचे- ऊँचे ओहदों पर पहुँचे। ये उनकी खुशहाली के दिन थे और उन दिनों उनकी दरिया-दिली के चर्चे भी कम नहीं थे। एक ओर वे बेहद कोमल और संवेदनशील व्यक्ति थे तो दूसरी और बेहद क्रोधी और अहंवादी।

यहाँ लेखिका ने बताया है कि उनका जन्म मध्यप्रदेश के भानपुरा गाँव में हुआ था और जब वे कुछ जानने-समझने लायक हुई तो स्वयं को अजमेर के ब्रह्यपुरी मोहल्ले के दो-मंजिला मकान मे पाया। मकान के ऊपरी हिस्से में पिता जी लिखने -पढ़ने का काम करते रहते थे और नीचे परिवार के शेष सभी सदस्य रहते थे। उनकी माँ अनपढ़ थीं लेकिन घर की जिम्मेदारियों को बहुत अच्छी तरह से निभाती थीं। अजमेर आने से पहले लेखिका के पिता इंदौर में प्रतिष्ठा थे और सम्मानित व्यक्ति के रूप में कांग्रेस और समाज-सुधार के कार्यो से जुटे हुए थे। वे न केवल उपदेश ही देते थे बल्कि विद्यार्थियों को अपने घर बुला कर पढ़ाते भी थे। लेखिका के पिताजी का जीवन उन दिनों खुशहाल था। वे कोमल और संवेदनशील व्यक्ति होने के साथ-साथ अहंवादी एवं क्रोधी भी थे।

पर यह सब तो मैने केवल सुना। देखा, तब तो इन गुणों के भग्नावशेषों को ढोते पिता थे। एक बहुत बड़े आर्थिक झटके के कारण वे इंदौर से अजमेर आ गए थे, जहाँ उन्होंने अपने अकेले के बल-बूते और हौसले से अंग्रेजी-हिंदी शब्द कोश (विषयवार) के अधूरे काम को आगे बढ़ाना शुरू किया जो अपनी तरह का पहला और अकेला शब्द कोश था। इसने उन्हें यश और प्रतिष्ठा तो बहुत दी, पर अर्थ नहीं और शायद गिरती आर्थिक स्थिति ने ही उनके व्यक्तित्व के सारे सकारात्मक पहलुओं को निचोड़ना शुरू कर दिया। सिकुड़ती आर्थिक स्थिति के कारण और अधिक विस्फारित उनका अहं उन्हें इस बात तक की अनुमति नहीं देता था कि वे कम-से-कम अपने बच्चों को तो अपनी आर्थिक विवशताओं का भागीदार बनाएँ। नबाबी आदतें, अधूरी महत्वकांक्षाएँ, हमेशा शीेर्ष पर रहने के बाद हाशिए पर सरकते चले जाने की यातना क्रोध बनकर हमेशा माँ को कँपाती-थरथराती रहती थी। अपनों के हाथों विश्वासघात की जाने कैसी गहरी चोंटे होंगी वे, जिन्होंने आँख मूँदकर सबका विश्वास करने वाले पिता को बाद के दिनों में इतना शक्की बना दिया था कि जब-तक हम लोग भी उसकी चपेट में आते ही रहते।

लेखिका बताती है कि उसने अपने पिताजी को अपने टूटे हुए गुणों और आशाओं के बोझ तले दबा हुआ ही देखा है। इंदौर में आर्थिक घाटा होने के बाद वे अजमेर आ गए और वहाँ उन्होंने अपनी तरह का पहला और अनुपम अंग्रेजी-हिंदी शब्द कोश लिखा। उन्हें सम्मान तो मिला। किंतु धन नहीं मिला। आर्थिक स्थिति अच्छी न होने पर भी उनके राजशाही ठाठ-बाठ करने की अधूरी इच्छाओं ने उनको क्रोधित बना दिया और उनका यह क्रोध लेखिका की माँ पर उतरता। अपनों द्वारा किए गए विश्वासघातों ने उनको इतना शक्की और चिड़चिड़ा बना दिया कि बात-बात पर अपना गुस्सा लेखिका और उसके भाई बहनों पर उतारते।

पर यह पितृ-गाथा मैं इसलिए नहीं गा रही कि मुझे उनका गौरव-गान करना है, बल्कि मैं तो यह देखना चाहती हूँ कि उनके व्यक्तित्व की कौन-सी खूबी और खामियाँ मेरे व्यक्तित्व के ताने-बाने में गुँथी हुई हैं या कि अनजाने-अनचाहे किए उनके व्यवहार ने मेरे भीतर किन ग्रंथियों को जन्म दे दिया। मैं काली हूँ। बचपन में दुबली और मरियल भी थी। गोरा रंग पिताजी की कमजोरी थी सो बचपन में मुझसे दो साल बड़ी, खूब गोरी, स्वस्थ और हँसमुख बहिन सुशीला से हर बाते में तुलना और फिर उसकी प्रशंसा ने ही क्या मेरे भीतर ऐसे गहरे हीन-भाव की ग्रंथि पैदा नहीं कर दी कि नाम, सम्मान और प्रतिष्ठा पाने के बावजूद आज तक मैं उससे उबर नहीं पाई? आज भी परिचय करवाते समय जब कोई कुछ विशेषता लगाकर मेरी लेखकीय उपलब्धियाँ का ज़िक्र करने लगता है तो मैं संकोच से सिमट ही नहीं जाती बल्कि गड़ने-गड़ने को हो आती हूँ। शायद अचेतन की किसी पर्त के नीचे दबी इसी हीन-भावना के चलते मैं अपनी किसी भी उपलब्धि पर भरोसा नहीं कर पाती … . सब कुछ मुझे तुक्का ही लगता है। पिता जी के जिस शक्की स्वभाव पर मैं कभी भन्ना-भन्ना जाती थी, आज एकाएक अपने खंडित विश्वासों की व्यथा के नीचे मुझे उनके शक्की स्वभाव की झलक ही दिखाई देती है … बहुत ‘अपनो’ के हाथों विश्वासघात की गहरी व्यथा से उपजा शक। होश सँभालने के बाद से ही जिन पिता जी से किसी -न-किसी बात पर हमेशा मेरी टक्कर ही चलती रही, वे तो न जाने कितने रूपों में मुझमें हैं … . कहीं कुँठाओं के रूप में, कहीं प्रतिक्रिया के रूप में तो कहीं प्रतिच्छाया के रूप में। केवल बाहरी भिन्नता के आधार पर अपनी परंपरा और पीढ़ियों को नकारने वालों को क्या सचमुच इस बात का बिलकुल अहसास नहीं होता कि उनका आसन्न अतीत किस कदर उनके भीतर जड़ जामए बैठा रहता है! समय का प्रवाह भले ही हमें दूसरी दिशाओं में बहाकर ले जाए … स्थितियों का दबाव भले ही हमारा रूप बदल दे, हमें पूरी तरह उससे मुक्त तो नहीं ही कर सकता!

यहाँ लेखिका अपने पिता की यशोगाथा नहीं गाना चाहती। वह तो यह बताना चाह रही है कि पिता के कौन-से गुण और दोष उसके अंदर समाए और कौन-सी ऐसी बातें थीं। जिन्होंने उनके अंदर हीनता की ग्रंथि को उत्पन्न किया। लेखिका बचपन में कमजोर थी, उनका रंग भी काला था जिस कारण उनके पिताजी उनकी गौरे रंगी खूबसूरत बहन को चाहते थे और लेखिका की उपेक्षा करते थे। नाम, सम्मान और प्रतिष्ठा पाने के बाद भी लेखिका उस हीन भावना की वजह से अपने पर भरोसा नहीं कर पाती थी! लेखिका को अपने में विश्वासघातों को झेलने वाले पिता जी के शक्की स्वभाव की झलक दिखाई देती है। उन दोनों की आपस में विचारों की टक्कर भी होती थी, फिर भी पिताजी का स्वभाव लेखिका में प्रतिविम्ब के रूप में रहता था।

पिता के ठीक विपरीत थीं हमारी बे पढ़ी-लिखी माँ। धरती से कुछ ज्य़ादा ही धैर्य और सहनशक्ति थी शायद उनमें। पिता जी हर ज्य़ादती को अपना प्राप्य और बच्चों की हर उचित-अनुचित फर्मााइश और ज़िद को अपना फ़र्ज समझकर बड़े सहज भाव से स्वीकार करती थीं वे। उन्होंने ज़िंदगी भर अपने लिए कुछ माँगा नहीं, चाहा नहीं … केवल दिया ही दिया। हम भाई-बहिनों का सारा लगाव (शायद सहानुभूति से उपजा) माँ के साथ, लेकिन निहायत असहाय मजबूरी में लिपटा उनका यह त्याग कभी मेरा आदर्श नहीं बन सका … . न उनका त्याग, न उनकी सहिष्णुता। खैर, जो भी हो, अब यह पैतृक-पुराण यहीं समाप्त कर अपने पर लौटती हूँ।

लेखिका माँ के विषय में बताते हुए कहती है कि माँ में अत्यंत धैर्य और सहनशीलता का भाव था। वे पिताजी द्वारा दिए गए कष्ट को और लेखिका और उनके बहन-भाइयों की जिद्द को सहज भाव से अपनाती थी। माँ परिवार के सदस्यों से कुछ लेने की अपेक्षा ज़िंदगी भर देती रहीं। इसलिए सभी बच्चों की सहानुभूति माँ के साथ थी। लेकिन लेखिका के लिए उनका त्याग कभी आदर्श नहीं बन सका।

पाँच भाई-बहिनों में सबसे छोटी मैं। सबसे बड़ी बहिन की शादी के समय मैं शायद सात साल की थी और उसकी धुंधली सी याद ही मेरे मन में है, लेकिन अपने से दो साल बड़ी बहिन सुशीला और मैंने घर के बड़े से आँगन में बचपन के सारे खेल खेले -सतोलिया, लंगड़ी-टाँग, पकड़म-पकड़ाई, काली-टीलो … . तो कमरों में गुड्‌डे-गुड़ियों के ब्याह भी रचाए पास-पड़ोस की सहेलियों के साथ। यों खेलने को हमने भाईयों के साथ गिल्ली-डंडा भी खेला और पतंग उड़ाने, काँच पीस कर मांजा सूतने का काम भी किया, लेकिन उनकी गतिविधियों का दायरा घर के बाहर ही अधिक रहता था और हमारी सीमा थी घर। हाँ, इतना ज़रूर था कि उस ज़माने में घर की दीवारें घर तक ही समाप्त नहीं हो जाती थी, बल्कि पूरे मोहल्ले तक फैली रहती थीं, इसलिए मोहल्ले के किसी भी घर में जाने पर कोई पाबंदी नहीं थी, बल्कि कुछ घर तो परिवार का हिस्सा ही थे। आज तो मुझे बड़ी शिद्दत के साथ यह महसूस होता है कि अपनी ज़िंदगी खुद जीने के इस आधुनिक दबाव ने महानगरों के प्लैट में रहने वालों को हमारे इस परंपरागत ‘पड़ोस-संस्कृति’ से विच्छिन्न करके हमें कितना संकुचित, असहाय और असुरक्षित बना दिया है। मेरी कम-से-कम एक दर्जन आरंभिक कहानियों के पात्र इसी मोहल्ले के हैं, जहाँ मैंने अपनी किशोरावस्था गुज़ार अपनी युवावस्था का आरंभ किया था। एक-दो को छोड़कर उनमें से कोई भी पात्र मेरे परिवार का नहीं है। बस इनको देखते-सुनते, इनके बीच ही मैं बड़ी हुई थी, लेकिन उनकी छाप मेरे मन पर कितनी गहरी थी, इस बात का अहसास तो मुझे कहानियाँ लिखते समय हुआ। इतने वर्षों के अंतराल ने भी उनकी भाव-भंगिमा, भाषा, किसी को भी धुंधला नहीं किया था और बिना किसी विशेष प्रयास के बड़े सहज भाव से वे उतरते चले गए थे। उसी समय के दा साहब अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पाते ही ‘महाभोज’ में इतने वर्षों बाद कैसे एकाएक जीवित हो उठे, यह मेरे अपने लिए भी आश्चर्य का विषय था … . एक सुखद आश्चर्य का।

लेखिका अपने विषय में बताते हुए कहती कि वह अपने पाँच भाई-बहिनों में सबसे छोटी थी। उन्होंने भाई-बहिनों के साथ बच्चों के द्वारा खेले जाने वाले सभी खेल खेले। उनकी सीमा घर तक बंधी हुई थीं। किंतु पूरे मोहल्ले भर में खेलते रहते थे। मोहल्ला एक परिवार की तरह हुआ करता था किंतु आज पड़ोसी संस्कृति समाप्त होने के कारण मनुष्य अपने घर तक ही सीमित हो गया है। लेखिका ने अपनी आरम्भिक रचनाओं के पात्र भी कुछ इसी प्रकार के थे। एक समय बीतने पर भी वे उन्हें भुला नहीं पाईं उन्हें इस बात का भी सुखद आश्चर्य हुआ कि महाभोज के माध्यम से उन्हें बहुत वर्ष बाद अपने दादाजी की स्मृतियाँ सजीव लगी।

उस समय तक हमारे परिवार में लड़की के विवाह के लिए अनिवार्य योग्यता थी-उम्र में सोलह वर्ष और शिक्षा में मैट्रिक। सन्‌ 44 में सुशीला ने यह योग्यता प्राप्त की और शादी करके कलकता चली गई। दोनों बड़े भाई भी आगे पढ़ाई के लिए बाहर चले गए। इन लोगों की छत्र-छाया के हटते ही पहली बार मुझे नए सिरे से अपने वजूद का एहसास हुआ। पिता जी का ध्यान भी पहली बार मुझ पर केंद्रित हुआ। लड़कियों को जिस उम्र में स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुघड़ गृहिणी और कुशल पाक-शास्त्री बनाने के नुस्खे जुटाए जाते थे, पिता जी का आग्रह रहता था कि मैं रसोई से दूर ही रहूँ! रसोई को वे भटियारखाना कहते थे और उनके हिसाब से वहाँ रहना अपनी क्षमता और प्रतिभा को भट्‌ठी में झोंकना था। घर में आए दिन विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के जमावड़े होते थे, जिसमें कांग्रेस, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी आर. एस. एस. के लोग आते थे और जमकर बहसें होती थीं। बहस करना पिताजी का प्रिय शगल था। चाय-पानी या नाश्ता देने जाती तो पिता जी मुझे भी वहीं बैठने को कहते। वे चाहते थे कि मैं भी वहीं बैठूँ, सुनूँ और जानूँ कि देश में चारों ओर क्या कुछ हो रहा है। देश में हो भी कितना कुछ रहा था, ′ 42 के आंदोलन के बाद से तो सारा देश जैसे खौल रहा था, लेकिन विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की नीतियाँ, उनके आपसी विरोध या मतभेदों की तो मुझे दूर-दूर तक कोई समझ नहीं थी। हाँ, क्राँतिकारियों और देशभक्त शहीदों के रोमानी आकर्षण, उनकी कुर्बानियों से ज़रूर मन आक्रांत रहता था।

लेखिका ने बताया है कि उनके परिवार की लड़कियाँ जब सोलह वर्ष की हो जाती थीं और दसवीं पास कर लेती थीं, जो उनकी शादी कर दी जाती थीं। लेखिका की बहन सुशीला की भी इसी योग्यता पर शादी कर गई थी। दोनों भाई पढ़ने के लिए बाहर चले गए थे। अब लेखिका का अपने अस्तित्व का बोध हुआ और पिताजी भी उसका ध्यान रखने लगे। पिताजी ने यह कहते हुए कि रसोई घर में भठियारनों का काम होता हैें उन्हें रसोईघर से दूर ही रखा। यदि वह उसमें काम करेंगी तो उसकी प्रतिभा और क्षमता वहीं जल कर खाक हो जाएगी। लेखिका अपने घर पर होने वाली विभिन्न दलों की आपसी बहसों को सुनती थी। जब वह चाय-नाश्ता लेकर जाती थी तो पिताजी बहस सुनने के लिए उसे वहीं बैठा लेते थे। लेखिका 1942 के आंदोलन की पार्टियों के आपसी मतभेद से तो अनभिज्ञ थी किंतु देशभक्तों के बलिदानों से मन में एक पीड़ा रहती थी।

सो दसवीं कक्षा तक आलम यह था कि बिना किसी खास समझ के घर में होने वाली बहसें सुनती थीं और बिना चुनाव किए, बिना लेखक की अहमियत से परिचित हुए किताबें पढ़ती थी। लेकिन सन्‌ 45 में जैसे ही दसवीं पास करके मैं ′ फर्स्ट इयर ′ में आई, हिंदी की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से परिचय हुआ। सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल … . जहाँ मैंने ककहरा सीखा, एक साल पहले ही कॉलेज बना था और वे इसी साल नियुक्त हुई थीं, उन्होंने बाकायदा साहित्य की दुनिया में प्रवेश करवाया। मात्र पढ़ने को, चुनाव करके पढ़ने में बदला … खुद चुन-चुन कर किताबें दी … पढ़ी हुई किताबों पर बहसें कीं तो दो साल बीतते-न-बीतते साहित्य की दुनिया शरत्‌ प्रेमचंद से बढ़कर जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल, भगवतीचरण वर्मा तक फैल गई और फिर तो फेलती ही चली गई। उस समय जैनेंद्र जी की छोटे-छोटे सरल-सहज वाक्यों वाली शैली ने बहुत आकृष्ट किया था। ′ सुनीता ′ (उपन्यास) बहुत अच्छा लगा था, अज्ञेय जी का उपन्यास ′ शेखर: एक जीवनी ′ पढ़ा ज़रूर पर उस समय वह मेरी समझ के सीमित दायरे में समा नहीं पाया था। कुछ सालों बाद ′ नदी के दव्ीप ′ पढ़ा तो उसने मन को इस कदर बाँधा कि उसी झोंक में शेखर को फिर से पढ़ गई … इस बार कुछ समझ के साथ। यह शायद मूल्यों के मंथन का युग था … पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक, सही-गलत की बनी-बनाई धारणाओं के आगे प्रश्न चिहृ ही नहीं लग रहे थे, उन्हें ध्वस्त भी किया जा रहा था। इसी संदर्भ में जैनेंद्र का ′ त्याग-पत्र, भगवती बाबू का, चित्रलेखा पढ़ा और शीला अग्रवाल के साथ लंबी-लंबी बहसें करते हुए उस उम्र में जितना समझ सकती थी, समझा।

लेखिका बताती है कि वह दसवीं कक्षा तक समझ से बाहर होते हुए भी बहसें सुनती थी और पुस्तकें पढ़ती थी। जिस स्कूल से पढ़ना आरम्भ किया था, वही अब कॉलेज बन गया था और दसवीं पास कर जब लेखिका कॉलेज में आई तो उनकी भेंट हिंदी की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल से हुई। उन्होंने लेखिका को साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश करवाकर पुस्तकों चयन, उनको पढ़कर बहस करना, साहित्यकारों के विषय में जानने की दिशा दी। कई लेखकों की रचनाओं ने उन विशेष प्रभाव डाला। यह समय उनकी धारणाओं के बदलने का समय था। उन्होंने शीला अग्रवाल से साहित्य के विषय में बहुत कुछ सीखा।

शीला अग्रवाल ने साहित्य का दायरा ही नहीं बढ़ाया था, बल्कि घर की चारदीवारी के बीच बैठकर देश की स्थितियों का जानने-समझने का जो सिलसिला पिता ने शुरू किया था, उन्होंने वहाँ से खींचकर उसे भी स्थितियों की सक्रिय भागीदारी में बदल दिया। सन्‌ 46 - 47 के दिन … वे स्थितियाँ, उसमें वैसे भी घर में बैठे रहना संभव था भला? प्रभात-फेरियाँ, हड़तालें, जुलूस, भाषण हर शहर का चरित्र था और पूरे दमखम और जोश-खरोश के साथ इन सबसे जुड़ना हर युवा का उन्माद। मैं भी युवा थी और शीला अग्रवाल की जोशीली बातों ने रगों में बहते खुन को लावे में बदल दिया था। स्थिति यह हुई की एक बवंडर शहर में मचा हुआ था और एक घर में। पिता जी की आज़ादी की सीमा यहीं तक थी कि उनकी उपस्थिति में घर में आए लोगों के बीच उठूँ-बैठूँ, जानूँ-समझूँ। हाथ उठा-उठाकर नारे लगाती, हड़ताले करवाती, लड़कों के साथ शहर की सड़कें नापती लड़की को अपनी सारी आधुनिकता के बावजूद बर्दाश्त करना उनके लिए मुश्किल हो रहा था तो किसी की दी हुई आज़ादी के दायरे में चलना मेरे लिए। जब रगों में लहू की जगह लावा बहता तो सारे निषेध, सारी वर्जनाएँ और सारा भय कैसे ध्वस्त हो जाता है, यह तभी जाना और अपने क्रोध से सबको थरथरा देने वाले पिता जी से टक्कर लेने का जो सिलसिला तब शुरू हुआ था, राजेंद्र से शादी की, तब तक वह चलता ही रहा।

शीला अग्रवाल ने लेखिका की साहित्यिक सीमा को बढ़ाने के साथ-साथ उनके पिता द्वारा देश की स्थितियों के संबंध में चलाए गए कार्यक्रम में भी बढ़-चढ़कर भाग लेने का सामर्थ्य भी भर दिया। 1946 - 47 के दौरान अनेक तरह के विरोधों में युवाओं का जोश उमड़ा हुआ था। जोश की उस लहर में लेखिका भी शामिल थी। जिस कारण उनके घर में उसे लेकर वातावरण गर्म हो जाता था। उन्हें केवल घर में ही होने वाली गति-विधियों में सम्मिलित होने की अनुमति थी। पिताजी का दिन भर लड़कों के साथ नारे लगाती, हड़ताले करती यह लड़की बुरी लग रही थी। लेखिका का कहना है कि जब खून में जोश होता है तब सभी बंधन, सभी डर समाप्त हो जाते हैं। इस कारण उसी समय से उनका उनके पिताजी से विरोधपूर्ण व्यवहार रहा और यह उनकी राजेंद्र यादव से शादी होने तक चलता रहा।

यश कामना बल्कि कहूँ कि यश-लिप्सा, पिता जी की सबसे बड़ी दुर्बलता थी और उनके जीवन की धुरी था यह सिद्धांत कि व्यक्ति को कुछ विशिष्ट बन कर जीना चाहिए … . कुछ ऐसे काम करने चाहिए कि समाज में उसका नाम हो, सम्मान हो, प्रतिष्ठा हो, वर्चस्व हा। इसके चलते ही मैं दो-एक बार उनके कोप से बच गई थी। एक बार कॉलेज से प्रिंसिपल का पत्र आया कि पिता जी आकर मिलें और बताएँ कि मेरी गतिविधियों के कारण मेंरे खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई क्यों न की जाए? पत्र पढ़ते ही पिता जी आग -बबूला। “यह लड़की मुझे कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रखेगी … . पता नहीं क्या-क्या सुनना पड़ेगा वहाँ जा कर! चार बच्चे पहले भी पढ़े, किसी ने ये दिन नहीं दिखाया।” गुस्से से भन्नाते हुए ही वे गए थे। लौटकर क्या कहर बरपा होगा, इसका अनुमान था, सो मैं पड़ोस की एक मित्र के यहाँ जाकर बैठ गई। माँ को कह दिया कि लौटकर बहुत कुछ गुबार निकल जाए, तब बुलाना। लेकिन जब माँ ने आकर कहा कि वे तो खुश ही हैं चली चल, तो विश्वास नहीं हुआ। गई तो सही, लेकिन डरते-डरते। “सारे कॉलिज की लड़कियों पर इतना रौब है तेरा … सारा कॉलिज तुम तीन लड़कियों के इशारे पर चल रहा है। प्रिंसिपल बहुत परेशान थी और बार-बार आग्रह कर रही थी कि मैं तुझे घर बिठा लूँ, क्योंकि वे लोग किसी तरह डरा-धमकाकर, डाँट-डपटकर लड़कियों का क्लासों में भेजते हैं और अगर तुम लोग एक इशारा कर दो कि क्लास छोड़कर बाहर आ जाओ तो सारी लड़कियाँ निकलकर मैदान में जमा होकर नारे लगाने लगती हैं। तुम लोगों के मारे कॉलिज चलाना मुश्किल हो गया है उन लोगों के लिए।” कहाँ तो जाते समय पिता जी मुँह दिखाने से घबरा रहे थे और कहाँ बड़े गर्व से कहकर आए कि यह तो पूरे देश की पुकार है … . इस पर कोई कैसे रोक लगा सकता है भला? बेहद गद्गद् स्वर में पिता जी यह सब सुनाते रह और मैं अवाक्‌। मुझे न अपनी आँखों पर विश्वास हो रहा था, न अपने कानों पर। पर यह हकीकत थी।

लेखिका के पिताजी यशप्राप्ति को महत्तव देते थे। उनका सिद्धांत था कि मनुष्य को अपना एक विशेष स्थान बना कर जीना चाहिए। समाज में नाम और सम्मान होना चाहिए। एक बार कॉलेज प्रिंसिपल ने लेखिका के प्रति अनुशासनात्मक कार्रवाई करने के विषय में पत्र लिखा तो पिता जी अत्यधिक क्रोधित होते हुए बोले कि यह लड़की हमारी सारी मान-मर्यादा समाप्त कराएगी और भी बच्चे थे किसी ने ऐसा नहीं किया। पिता जी गए तो गुस्से में थे लेकिन वहाँ से खुश होकर लौटे। कारण बताया कि कॉलेज की सभी लड़कियाँ केवल तीन लड़कियों के संकेत पर कॉलेज की कक्षाएँ छोड़ देती थीं, जिनमें से एक लेखिका थी। उनके कारण कॉलेज चलाना मुश्किल हो रहा था। यह सब सुनकर लेखिका के पिता को अपने -आप पर गर्व हो रहा था। पूरे देश में इसी प्रकार का वातावरण बना हुआ था। पिताजी के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर लेखिका को आश्चर्य हा रहा था।

एक घटना और। आज़ाद हिंद फ़ौज के मुकदमे का सिलसिला था। सभी कॉलिजों, स्कूलों, दुकानों के लिए हड़ताल का आहृान था। जो-जो नहीं कर रहे थे, छात्रों का एक बहुत बड़ा समूह वहाँ जा-जा कर करवा रहा था। शाम को अजमेर का पूरा विद्यार्थी-वर्ग चौपड़ (मुख्य बाज़ार का चौराहा) पर इकट्‌ठा हुआ और फिर हुई भाषणबाजी। इस बीच पिताजी के एक निहायत दकियानूसी मित्र ने घर आकर अच्छी तरह पिता जी की लू उतारी, “अरे उस मन्नू की तो मत मारी गई है पर भंडारी जी आप को क्या हुआ? ठीक है, आप ने लड़कियों को आज़ादी दी, पर देखते आप, जाने कैसे-कैसे उलटे-सीधे लड़कों के साथ हड़ताले करवाती, हुड़दंग मचाती फिर रही है वह। हमारे-आपके घरों की लड़कियों को शोभा देता है यह सब? कोई मान-मर्यादा, इज्जत-आबरू का खयाल भी रह गया है आप को या नहीं?” वे तो आग लगाकर चले गए और पिता जी सारे दिन भभकते रहे, “बस अब यही रह गया है कि लोग घर आकर थू-थू करके चले जाएँ। बंद करो अब इस मन्नू का घर से बाहर निकलना।”

लेखिका ने इस घटना का उल्लेख किया है जब आज़ाद हिंद फ़ौज के मुकदमे का सिलसिले में स्कूल कॉलेज, दुकानों को बंद करने की घोषणा की गई थी और बहुत सी दुकानों का जबरदस्ती बंद करवाया गया था। सभी विद्यार्थी शाम को मुख्य चौक पर एकत्र हुए और वहाँ जमकर भाषणबाजी हुई। दूसरी तरफ लेखिका के पिताजी के एक दोस्त ने लेखिका के विरुद्ध पिताजी के कान भर दिये कि लेखिका का लड़कों के साथ नारेबाजी करना, हड़ताल आदि करते घूमना उचित नहीं है। उसके जाने के बाद पिताजी क्रोध की अग्नि में चलते रहे और यह निश्चय किया कि लेखिका को अब घर से बाहर नहीं निकलने देंगे।

इस सबसे बेखबर मैं रात होने पर घर लौटी तो पिता जी के बेहद अंतरंग और अभिन्न मित्र ही नहीं, अजमेर के सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानित डॉ. अंबालाल जी बैठे थे। मुझे देखते ही उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया, ″ आओ, आओ मन्नू! मैं तो चौपड़ पर तुम्हारा भाषण सुनते ही सीधा भंडारी जी को बधाई देने चला आया। ‘मुझे तुम पर गर्व है’ क्या तुम घर में घुसे रहते हो भंडारी जी … घर से निकला भी करो। ‘यू हैव मिस्ड समथिंग’ और वे धुँआधार तारीफ़ करने लगे-वे बोलते जा रहे थे और पिता जी के चेहरे का संतोष धीरे-धीरे गर्व में बदलता जा रहा था। भीतर जाने पर माँ ने दोपहर के गुस्से वाली बात बताई तो मैंने राहत की साँस ली।

आज पीछे मुड़कर देखती हूँ तो इतना तो समझ में आता ही है क्या तो उस समय मेरी उम्र थी और क्या मेरा भाषण रहा होगा! यह तो डॉक्टर साहब का स्नेह था जो उनके मुँह से प्रशंसा बनकर बह रहा था या यह भी हो सकता है कि आज से पचास साल पहले अजमेर जैसे शहर में चारों ओर से उमड़ती भीड़ के बीच एक लड़की का बिना किसी संकोच और झिझक के यों धुँआधार बोलते चले जाना ही इसके मूल में रहा हो। पर पिताजी! कितनी तरह के अंतर्विरोधी के बीच जीते थे! एक ओर ‘विशिष्ट’ बनने और बनाने की प्रबल लालसा तो दूसरी ओर अपनी सामाजिक छवि के प्रति भी उतनी ही सजगता। पर क्या यह संभव है? क्या पिताजी को इस बात का बिलकुल भी अहसास नहीं था कि इन दोनों का तो रास्ता ही टकराहट का है?

लेखिका के पिताजी क्रोध से अनभिज्ञ जब घर पर आई तो उनके पिताजी के पास उनके घनिष्ठ मित्र और अजमेर के सम्माननीय डॉ. अंबालाल जी बैठे लेखिका की तारीफ़ कर रहे थे। साथ ही पिताजी को बधाई देते हुए यह बता रहे थे कि उन्होंने लेखिका का भाषण न सुनकर बहुत कुछ खो दिया है। इन सब बातों से पिताजी का क्रोध शांत होता गया और चेहरा गर्व से चमकने लगा। लेखिका आज भी जब उस प्रसंग के विषय में सोचती है तो उन्हें डॉक्टर साहब का प्यार और बड़प्पन नज़र आता है कि उन्होंने उस छोटी बच्ची की इतनी प्रशंसा की थी। यह भी हो सकता है कि पचास साल पहले इतनी भीड़ और ऐसी परिस्थितियों में चौक पर खड़ी होकर किसी लड़की ने पहली बार बोला होगा। पिताजी का जीवन द्वन्द्वग्रस्त था। वे सामाजिक छवि बनाए रखने के साथ-साथ समाज में अपना विशेष स्थान भी बनाए रखना चाहते थे। शायद पिताजी को यह भी पता था कि ये दोनों रास्ते एक दूसरे के विपरीत हैंं

सन्‌ 47 के मई महीने में शीला अग्रवाल को कॉलिज वालों ने नोटिस थमा दिया-लड़कियों को भड़काने और कॉलिज का अनुशासन बिगाड़ने के आरोप में। इस बात को लेकर हुड़दंग न मचे, इसलिए जुलाई में थर्ड इयर की क्लासेज़ बंद करके हम दो-तीन छात्राओं का प्रवेश निषिद्ध कर दिया।

हुड़दंग तो बाहर रहकर भी इतना मचाया कि कॉलिज वालों को अगस्त में आखिर थर्ड इयर खोलना पड़ा। जीत की खुशी, पर सामने खड़ी बहुत-बहुत बड़ी चिर प्रतीक्षित खुशी के सामने यह खुशी बिला गई। शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि … . 15 अगस्त 1947

लेखिका बताती है कि 1947 में शीला अग्रवाल को कॉलिज वालों ने यह कहते हुए नोटिस दे दिया कि वे लड़कियों को भड़काने और अनुशासन को भंग करने का काम कर रही हैं। उन्होंने तीसरे वर्ष की कक्षाएँ भी बंद कर दी ताकि लेखिका और उनके साथ की एक-दो लड़कियाँ प्रवेश न लें सकें। कॉलेज से बाहर रहकर भी उन्होंने ऐसा बखेड़ा किया कि कक्षाएँ फिर से आरंभ करनी पड़ी। 15 अगस्त, 1947 की जीत एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद की जीत थी, इस जीत के आगे उनकी जीत कुछ भी नहीं थी।

शब्दार्थ

अहंवादी-घमंडी। भग्नावशेष-खंडहर। विस्फारित-और अधिक फेलना। आक्रांत-कष्टग्रस्त। वर्चस्व-दबदबा निषिद्ध- जिस पर रोक लगाई गई हो।

इस पाठ को कंठस्थ कर निम्न प्रशनो के उत्तर दीजिए

Question 364 (168 of 214 Based on Passage)

Write in Short Short Answer▾

पिता जी पत्र पढ़कर अत्यधिक क्रोधित होते हुए लेखिका से क्या बोले?

Edit

Question 365 (169 of 214 Based on Passage)

Write in Short Short Answer▾

पिता जी कॉलेज किस तरह से गए थे?

Edit

Question 366 (170 of 214 Based on Passage)

Write in Short Short Answer▾

पिता जी कॉलेज किस तरह से वापस लौटे थे?

Edit

Question 367 (171 of 214 Based on Passage)

Write in Short Short Answer▾

पिताजी को किसकी बात सुनकर अपने आप में गर्व हो रहा था?

Edit

Question 368 (172 of 214 Based on Passage)

Write in Short Short Answer▾

लेखिका को किस बात का आश्चर्य हो रहा था।?

Edit

Question 369 (173 of 214 Based on Passage)

Write in Short Short Answer▾

किस के मुकदमे का सिलसिला चल रहा था।?

Edit

Question 370 (174 of 214 Based on Passage)

Write in Short Short Answer▾

लेखिका ने किस घटना का उल्लेख किया है?

Edit

Question 371 (175 of 214 Based on Passage)

Write in Short Short Answer▾

आज़ाद हिंद फ़ौज के मुकदमे के सिलसले के कारण क्या घोषणा की गई थी?

Edit

Question 372 (176 of 214 Based on Passage)

Write in Short Short Answer▾

सभी विद्यार्थी शाम को कहाँ पर एकत्र हुए?

Edit

Question 373 (177 of 214 Based on Passage)

Write in Short Short Answer▾

सभी विद्यार्थी ने शाम को मुख्य चौक पर क्या किया?

Edit

Question 374 (178 of 214 Based on Passage)

Write in Short Short Answer▾

दूसरी तरफ लेखिका के पिताजी के कान किसने भर दिये थे?

Edit

Question 375 (179 of 214 Based on Passage)

Write in Short Short Answer▾

पिताजी के मित्र ने पिताजी से क्या-क्या कहा?

Edit

Question 376 (180 of 214 Based on Passage)

Write in Short Short Answer▾

मित्र के जाने के बाद पिताजी किस अग्नि में जलते रहे?

Edit

Question 377 (181 of 214 Based on Passage)

Write in Short Short Answer▾

लेखिका के पिताजी ने क्या निश्चय किया?

Edit

Question 378 (182 of 214 Based on Passage)

Write in Short Short Answer▾

लेखिका के घर पर कौन बैठे थे?

Edit