क्षितिज(Kshitij-Textbook) [CBSE (Central Board of Secondary Education) Class-10 (Term 1 & 2 MCQ) Hindi]: Questions 1538 - 1546 of 1777

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Passage

पाठ 16

यतींद्र मिश्र

″ प्रसिद्ध साहित्कार यतींद्र मिश्र अपनी रचनाओं

के माध्यम से पद्य, और गद्य दोनों विधाओं पर

प्रभावपूर्ण छाप छोड़ने में सफल रहे हैं। सरल

एवं सरस भाषा में समाज के विभिन्न पहलुओं

को मिश्र जी ने अपनी रचनाओं का माध्यम

बनाया है। साथ ही गंभीर विषय को भी

बोधम्य एवं रुचिप्रद बना देने की योग्यता के

कारण ही यतींद्र मिश्र का साहित्य लोकप्रिय है। ″

जीवन-परिचय- साहित्य और कलाओं के संवर्द्धन में विशेष सहयोग प्रदान करने वाले श्री यतींद्र मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश के अयोध्या में सन्‌ 1977 में हुआ। उन्होंने हिन्दी में एम. ए. की उपाधि लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ से प्राप्त की। वे सन्‌ 1999 से एक सांस्कृतिक न्यास ‘विमला देवी नींव’ का भी संचालन कर रहे हैं जिसमें साहित्य और कलाओं के संवर्द्धन और अनुशीलन पर विशेष ध्यान दिया जाता है। उनको भारत भूषण अग्रवाल कविता सम्मान, हेंमत स्मृति कविता पुरस्कार, ऋतुराज सम्मान आदि अनेक पुरस्कारों से विभूषित किया जा चुका है। वर्तमान में वे स्वतंत्र लेखन के साथ-साथ ‘सहित’ नामक अर्द्धवार्षिक पत्रिका का संपादन कर रहे हैं।

प्रमुख रचनाएँ- यतींद्र मिश्र के तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ये हैं- अयोध्या तथा अन्य कविताएँ, यदा-कदा, ड्‌योढ़ी पर आलाप। इसके अतिरिक्त उन्होंने शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी के जीवन और संगीत साधना पर एक ‘गिरिजा’ नामक पुस्तक लिखी है। उन्होंने रीतिकाल के अंतिम प्रतिनिध कवि द्विजदेव की ग्रंथावली का सन्‌ 2000 में सह-संपादन किया। उन्होंने कुँवर नारायण पर आधारित दो पुस्तकों और स्पिक मैके के लिए विरासत 2001 के कार्यक्रम के लिए रूपंकर कलाओं पर केंद्रित ‘थाती’ का भी संपादन किया।

साहित्यिक विशेषताएँ-यतींद्र मिश्र ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज और संस्कृति के अनेक पहलुओं का चित्रण किया है। उन्होंने कविता, संगीत और अन्य ललित कलाओं को समाज के साथ जोड़ा है। उन्होंने समाज के अनेक भावुक प्रसंगों को बड़ी ही सहजता से शब्दों में पिरोया है। उनकी रचनाओं के माध्यम से समाज के निकटता से दर्शन होते हैं।

भाषा-शैली- यतींद्र मिश्र की भाषा सहज, प्रवाहमयी तथा प्रसंगों के अनुकूल है। उनकी रचनाओं में भावकुता और संवदेना का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। कृति को प्रभावशाली बनाने के लिए उन्होंने लोक प्रचलित शब्दों के साथ-साथ सूक्तियों का भी प्रयोग किया है।

नौबतखाने में इबादत

यतींद्र मिश्र द्वारा रचित व्यक्ति-चित्र “नौबतखाने में इबादत” में प्रसिद्ध शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ का व्यक्तिगत परिचय देने के साथ-साथ उनकी रूचियों, संगीत के प्रति अनन्य साधना एवं लगन का मार्मिक चित्रण किया गया है। बिस्मिल्ला खाँ की लगन और धैर्य के माध्यम से बताया गया है कि संगीत एक आराधना है, इसका अपना शास्त्र और विधि-विधान है, जिसके परिचय के साथ अभ्यास भी आवश्यक है। अभ्यास के लिए पूर्ण तन्मयता, धैर्य और मंथन के अतिरिक्त गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वाह भी जऱूरी है। यहाँ दो संप्रदायों के एक होने की भी प्रेरणा दी गई है।

सन्‌ 1916 से 1922 के आसपास की काशी। पंचगंगा घाट स्थित बाला जी मंदिर की ड्‌योढ़ी। ड्‌योढ़ी का नौबतखाना और नौबतखाने से निकलने वाली मंगलध्वनि। अमीरुद्दीन अभी सिर्फ़ छ: साल का है और बड़ा भाई शम्सुद्दीन नौ साल का। अमीरुद्दीन को पता नहीे है कि राग किस चिड़िया को कहते हैं। और ये लोग हैं मामूजान वगैरह जो बात-बात पर भीमपलासी और मुलतानी कहते रहते हैं। क्या वाज़िब मतलब हो सकता है इन शब्दों का, इस लिहाज से अभी उम्र नहीं है अमीरुद्दीन की, जान सके इन भारी शब्दों का वजन कितना होगा। गोया, इतना ज़रूर है कि अमीरुद्दीन भाई शम्सुद्दीन के मामादव्य सादिक हुसैन तथा अलीबख्श देश के जाने-माने शहनाई वादक हैं। विभिन्न रियासतों के दरबार में बजाने जाते रहते हैं। रोज़नामचे में बालाजी का मंदिर सबसे ऊपर आता है। हर दिन की शुरुआत वहीं ड्‌योढ़ी पर होती है। मंदिर के विग्रहों को पता नहीं कितनी समझ है, जो रोज़ बदल-बदलकर मुलतानी, कल्याण, ललित और कभी भैरव रागों को सुनते रहते हैं। ये खानदानी पेशा है अलीबख्श के घर का। उनके अब्बाजान भी ड्‌योढ़ी पर शहनाई बजाते रहते हैं।

अमीरुद्दीन का जन्म डुमराँव, बिहार के एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ है। 5 - 6 वर्ष डुमराँव में बिताकर वह नाना के घर, ननिहाल काशी में आ गया है। डुमराँव का इतिहास में कोई स्थान बनता हो, ऐसा नहीं लगा कभी भी। पर यह ज़रूर है कि शहनाई और डुमराँव एक-दूसरे के लिए उपयोगी हैं। शहनाई बजाने के लिए रीड का प्रयोग होता है। रीड अंदर से पोली होती है जिसके सहारे शहनाई को फूँका जाता है। रीड, नरकट (एक प्रकार की घास) से बनाई जाती है जो डुमराँव में मुख्यत: सोन नदी के किनारे पर पाई जाती है। इतनी ही महत्ता है इस समय डुमराँव की जिसके कारण शहनाई जैसा वाद्य बजता है। फिर अमीरुद्दीन जो हम सबसे प्रिय हैं, अपने उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ साहब हैं। उनका जन्म स्थान भी डुमराँव ही है। इनके परदादा उस्ताद सलार हुसैन खाँ डुमराँव निवासी थे। बिस्मिल्ला खाँ उस्ताद पैगंबरबख्श खाँ और मिट्‌ठन के छोटे साहबजादे हैं।

पाठ के आरंभ में लेखक सन्‌ 1916 से 1922 के उस समय का वर्णन किया है जब उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ लगभग छ: साल के थे। साथ ही काशी में पंचगंगा के किनारे स्थित बालाजी के मंदिर से आती शहनाई की मंगलधुनों का उल्लेख किया हैं। बिस्मिल्ला खाँ का बचपन का नाम अमीरुद्दीन था। उन्हें रागों के विषय में बिल्कुल भी ज्ञान नहीं था। उनके मामा देश के प्रसिद्ध शहनाई वादक थे। प्रतिदिन बाला जी के मंदिर में बैठकर वे रागों का रियाज़ किया करते थे। अमीरुद्दीन का जन्म बिहार के डुमराँव नामक स्थान पर हुआ था। 5 - 6 वर्ष की अवस्था में ही वे अपने नाना के घर काशी में आ गए। डुमराँव का अपना एक विशेष महत्व हैं यहाँ सोन नदी के किनारे एक घास विशेष पाई जाती है जिसके द्वारा शहनाई में फूँकने के लिए रीड बनाई जाती हैं अमीरुद्दीन अर्थात उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ का जन्म भी यहीं पर होने के कारण इसका महत्व ओर बढ़ गया है। बिस्मिल्ला खाँ के माता-पिता का नाम मिट्‌ठन बाई व पैगंबरबख्श खाँ है।

अमीरुद्दीन की उम्र अभी 14 साल है। मसलन बिस्मिल्ला खाँ की उम्र अभी 14 साल है। वही काशी है। वही पुराना बालाजी का मंदिर जहाँ बिस्मिल्ला खाँ को नौबतखाने रियाज़ के लिए जाना पढ़ता हैं। मगर एक रास्ता है बालाजी मंदिर तक जाने का। यह रास्ता रसूलनबाई और बतूलनबाई के यहाँ से होकर जाता हैं। इस रास्ते से अमीरुद्दीन को जाना अच्छा लगता है। इस रास्ते न जाने कितने तरह के बोल-मानव कभी ठुमरी, कभी टप्पे, कभी दादरा के मार्फत ड्‌योढ़ी तक पहुँचते रहते हैं। रसूलन और बतूलन जब गाती हैं तब अमीरुद्दीन को खुशी मिलती है। अपने ढेरों साक्षात्कारों में बिस्मिल्ला खाँ साहब ने स्वीकार किया है कि उन्हें अपने जीवन के आरंभिक दिनों में संगीत के प्रति आसक्ति इन्ही गायिका बहिनों को सुनकर मिली हैं। इस प्रकार से उनकी अबोध उम्र में अनुभव की स्लेट पर संगीत प्रेरणा की वर्णमाला रसूलनबाई और बतूलनबाई ने उकेरी है।

वैदिक इतिहास में शहनाई का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इसे संगीत शास्त्रांतर्गत ′ सुषिर-वाद्यों ′ में गिना जाता हे। अरब देश में फूँककर बजाए जाने वाले वाद्य जिसमें नाड़ी (नरकट या रीड) होती है, को ′ नय ′ बोलते हैं। शहनाई को ′ शाहेनय ′ अर्थात्‌ सुषिर वाद्यों में शाह ′ की उपाधि दी गई है। सोलहवीं शताब्दी के उत्तरर्द्ध में तानसेन के दव्ारा रची बंदिश, जो संगीत राग कल्पद्रुम से प्राप्त होती है, में शहनाई, मुरली, वंशी, श्रृंगी एवं मुरछंग आदि का वर्णन आया हैं।

अवधी पारंपरिक लोकगीतों एवं चैती में शहनाई का उल्लेख बार-बार मिलता है। मंगल का परिवेश प्रतिष्ठित करने वाला यह वाद्य इन जगहों पर मांगलिक विधि-विधानों के अवसर पर ही प्रयुक्त हुआ है।ं दक्षिण भारत के मंगल वाद्य ‘नागस्वरम्‌’ की शहनाई, प्रभाती की मंगलध्वनि का संपूरक है।

जब बिस्मिल्ला खाँ 14 साल के थें तब उन्हें काशी के पुराने बाला जी के मंदिर के नौबतखाने में रियाज़ के लिए जाना पड़ता तो वे उस रास्ते से जाते थे जहाँ दो गायिका बहनें रहती थी। उस रास्ते पर उन्हें अनेक तरह की संगीत और गायन की विधाएँ सुनने को मिलती थी। उन गायिका बहनों का बिस्मिल्ला को संगीत की ओर अग्रसर करने का श्रेय जाता है। शहनाई को फूँक कर बजाए जाने वाले वाद्य यंत्रों में गिना जाता है, अरब देशों में ऐसे वाद्य-यंत्रों को ‘नय’ कहते हैं। सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तानसेन की रचनाओं में शहनाई, मुरली आदि का उल्लेख पाया जाता हे। अवधी में रचित लोकगीतों आदि में शहनाई का वर्ण मिलता है। मांगलिक कार्यक्रमों में इसे बजाया जाता है। दक्षिण भारत में प्रभाती आदि में शहनाई मंगलध्वनि का सूचक है।

शहनाई के इसी मंगलध्वनि के नायक बिस्मिल्ला खाँ साहब अस्सी बरस से सुर माँग रहे हैं। सच्चे सुर की नेमत। अस्सी बरस की पाँचों वक्त वाली नमाज़ इसी सुर को पाने की प्रार्थना में खर्च हो जाती है। लाखों सज़दे, इसी एक सच्चे सुर की इबादत में खुदा के आगे झुकते हैं। वे नमाज़ के बाद सज़दे में गिड़गिड़ाते हैं- ‘मेरे मालिक एक सुर बख्श दे। सुर में वह तासीर पैदा कर कि आँखों से सच्चे मोती की तरह अनगढ़ आँसू निकल आएँ। उनको यकीन है, कभी खुदा यूँ ही उन पर मेहरबान होगा और अपनी झोली से सुर का फल निकालकर उनकी ओर उछालेगा, फिर कहेगा, ले जा अमीरुद्दीन इसको खा ले और कर ले अपनी मुराद पूरी’ ।

अपने ऊहापोहों से बचने के लिए हम स्वयं किसी शरण, किसी गुफ़ा को खोजते हैं जहाँ अपनी दुश्चिंताओं दुर्बलताओं को छोड़ सकें और वहाँ से फिर अपने लिए एक नया तिलिस्म गढ़ सकें। हिरन अपनी महक से परेशान पूरे जंगल में उस वरदान को खोजता है जिसकी गमक उसी में समाई है। अस्सी बरस से बिस्मिल्ला खाँ यही सोचते आए हैं कि सातों सुरों को बरतने की तमीज़ उन्हें सलीके से अभी तक क्यों नहीं आई।

बिस्मिल्ला खाँ और शहनाई के साथ जिस एक मुस्लिम पर्व का नाम जुड़ा हुआ है, वह मुहर्रम है। मुहर्रम का महीना वह होता है जिसमें शिया मुसलमान हज़रत इमाम हुसैन एवं उनके कुछ वंशजों के प्रति अज़ादारी (शोक मनाना) मनाते हैं। पूरे दस दिनों का शोक। वे बताते हैं कि उनके खानदान का कोई व्यक्ति मुहर्रम के दिनों में न तो शहनाई बजाता है न ही किसी संगीत के कार्यक्रम में शिरकत ही करता है। आठवीं तारीख उनके लिए खास महत्व की है। इस दिन खाँ साहब खड़े होकर शहनाई बजाते हैं व दालमंडी में फातमान के करीब आठ किलोमीटर की दूरी तक पैदल रोते हुए, नौहा बजाते जाते हैं। इस दिन कोई राग नहीं बजता। राग-रागिनियों की अदायगी का निषेध है इस दिन।

उनकी आँखे इमाम हुसैन और उनके परिवार के लोगों की शहादत में नम रहती हैं। अज़ादारी होती है। हज़ारों आँखें नम। हज़ार बरस की परंपरा पुनर्जीवत। मुहर्रम संपन्न होता है। एक बड़े कलाकार का सहज मानवीय रूप ऐसे अवसर पर आसानी से दिख जाता है।

अपनी अस्सी बरस की अवस्था में भी बिस्मिल्ला खाँ दिन की प्रत्येक नजाज़ में सच्चा सुर पाने की प्रार्थना करते रहते थे। वे ऐसा सुर चाहते थे जिसमें ऐसा प्रभाव हो कि सभी भाव विभोर हो उठें। साथ ही उन्हें यह विश्वास भी था कि एक दिन ऐसा आएगा जब खुदा उसकी मुराद पूरी करेगा। प्रत्येक मनुष्य दुर्बलताओं और कठिनाइयों से बचने के लिए किसी शांत जगह पर जाना चाहता है। बिस्मिल्ला खाँ उम्र के अंतिम पड़ाव में भी यही सोचते रहे कि उनको सातों सुरों को अच्छी तरह बरतने का तरीका क्यों नहीं आया। मुहर्रम के महीने में दस दिनों का शोक मनाया जाता है। इन दिनों किसी प्रकार का कोई भी संगीत का कार्यक्रम आयोजित नहीं किया जाता है। आठवें दिन बिस्मिल्ला खाँ शहनाई बजाते हुए, रोते हुए, मातमी धुन बजाते हुए दालमंडी से लगभग आठ किलामीटर दूर पैदल जाते थे। वे इमाम हुसैन और उनके परिवार के लोगों की शहादत पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। इस प्रकार एक महान कलाकार का सहज मानवीय रूप हमारे सामने प्रकट होता है।

मुहर्रम के गमज़दा माहौल से अलग, कभी-कभी सुकून के क्षणों में वे अपनी जवानी के दिनों को याद करते हैं। वे अपने रियाज़ को कम, उन दिनों के अपने जुनून को अधिक याद करते हैं। अपने अब्बाजान और उस्ताद को कम, पक्का महाल की कुलसुम हलवाइन की कचौड़ी वाली दुकान व गीताबाली और सुलोचना को ज्यादा याद करते हैं। कैसे सुलोचना उनकी पसंदीदा हीरोइन रही थीं, बड़ी रहस्यमय मुस्काराहट के साथ गालों पर चमक आ जाती है। खाँ साहब की अनुभवी आँखे और जल्दी ही खिस्स से हँस देने की ईश्वरीय कृपा आज भी बदस्तूर कायम है।

इसी बालसुलभ हँसी में कई यादें बंद हैं। वे जब उनका जिक्र करते हैं तब फिर उसी नैसर्गिक आनंद में आँखें चमक उठती हैं। अमीरुद्दीन तब सिर्फ चार साल का रहा होगा। छुपकर नाना को शहनाई बजाते हुए सुनता था, रियाज़ के बाद जब अपनी जगह से उठकर चले जाएँ तब जाकर छेरों छोटी-बड़ी शहनाईयों की भीड़ से अपने नाना वाली शहनाई ढूँढता और एक-एक शहनाई को फेंक कर खारिज करता जाता, सोचता- ‘लगता है मीठी वाली शहनाई दादा कहीं और रखते हैं।’ जब मामू अलीबख्श खाँ (जो उस्ताद भी थे) शहनाई बजाते हुए सम पर आएँ, तब धड़ से एक पत्थर ज़मीन पर मारता था। सम पर आने की तमीज़ उन्हें बचपन में ही आ गर्ह थी, मगर बच्चे को यह नहीं मालूम था कि दाद वाह करके हो जाती है, सिर हिलाकर दी जाती है, पत्थर पटक कर नहीं। और बचपन के समय फिल्मों के बुखार के बारे में तो पूछना ही क्या? उस समय तीसरी कक्षा के लिए छ: पैसे का टिकट मिलता था। अमीरुद्दीन दो पैसे मामू से, दो पैसे मौसी से और दो पैसे नानी से लेता था फिर घंटों लाइन में लगकर टिकट हासिल करता था।

इधर सुलाचना की नयी फिल्म सिनेमाहाल में आई और उधर अमीरुद्दीन अपनी कमाई लेकर चला फिल्म देखने जो बालाजी मंदिर पर रोज़ शहनाई बजाने से उसे मिलती थी। एक अठन्नी मेहनताना। उस पर यह शौक ज़बरदस्त कि सुलोचना की कोई नयी फिल्म न छूटे तौर कुलसुम की देशी घी वाली दुकान। वहाँ की संगीतमय कचौड़ी। संगीतमय कचौड़ी इस तरह क्योंकि कुलसुम जब कलकलाते घी में कचौड़ी डालती थी, उस समय छनन से उठाने वाली आवाज़ में उन्हें सारे आरोह-अवरोह दिख जाते थे। राम जाने, कितनों ने ऐसी कचौड़ी खाई होंगी। मगर इतना तय है कि अपने खाँ साहब रियाज़ी और स्वादी दोनों रहे हैं और इस बात में कोई शक नहीं कि दादा की मीठी शहनाई उनके हाथ लग चुकी है।

बिस्मिल्ला खाँ को अपनी जवानी के वे दिन याद आते हैं जब उन्हें रियाज करने का जुनून चढ़ा रहता था। साथ ही उन्हें कचौड़ियों की दुकान भी याद रहती थी। वे गीताबाली और सुलोचना को ज्यादा याद करते थे। उनकी पसंदीदा हीरोइन सुलाचना हुआ करती थी। वे बच्चें की तरह मुस्कराते थे। उनके बचपन की वह घटना भी बताई गई है जब वे अपने नाना की शहनाई को ढूढंने के लिए अनके शहनाइयों को इधर-उधर फेंक देते थे। जब उनका मामा शहनाई बजाते तो पत्थर को ज़मीन पर पटक कर उनकी प्रशंसा करते थे। वे फिल्मों के बहुत शौकीन थे और और घर के सदस्यों से पैसे इकट्‌ठे करके फिल्म देखने जाते थे। सुलोचना की फ़िल्म तो वे अवश्य देखते थे। कुलसुम हलवाइन की देशी घी की कचौड़ी भी उनसे कभी न छूटी।

काशी में संगीत आयोजन की एक प्राचीन एवं अद्भुत पंरपरा है। यह आयोजन पिछले कई बरसों से संकटमोचन मंदिर में होता आया है। यह मंदिर शहर के दक्षिण में लंका पर स्थित है व हनुमान जयंती के अवसर पर यहाँ पाँच दिनों तक शास्त्रीय एवं उपशास्त्रीय गायन-वादन की उत्कृष्ट सभा होती है। इसमें बिस्मिल्ला खाँ अवश्य रहते हैं। अपने मजहब के प्रति अत्यधिक समर्पित उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की श्रद्धा काशी विश्वनाथ जी के प्रति भी अपार है। वे जब भी काशी से बाहर रहते हैं तब विश्वनाथ व बालाजी मंदिर की दिशा की ओर मुँह करके बैठते हैं, थोड़ी देर ही सही, मगर उसी ओर शहनाई का पाला घुमा दिया जाता है और भीतर की आस्था रीड के माध्यम से बजती है। खाँ साहब की एक रीड 15 से 20 मिनट के अंदर गीली हो जाती है तब वे दूसरी रीड का इस्तेमाल कर लिया करते हैं।

अकसर कहते हैं-क्या करें मियाँ, ई काशी छोड़कर कहाँ जाएँ, गंगा मइया यहाँ, बाबा विश्वनाथ यहाँ बालाजी का मंदिर यहाँ, यहाँ हमारे खानदान की कई पुश्तों ने शहनाई बजाई है, हमारे नाना तो वहीं बालाजी मंदिर में बड़े प्रतिष्ठित शहनाईवाज़ रह चुके हैं। अब हम क्या करें, मरते दम तक न यह शहनाई छूटेगी न काशी। जिस ज़मीन ने हमें तालीम दी, जहाँ से अदब पाई, वो कहाँ और मिलेगी? शहनाई और काशी से बढ़कर कोई जन्नत नहीं इस धरती पर हमारे लिए ′ ।

काशी संस्कृति की पाठशाला है। शास्त्रों में आनंदकानन के नाम से प्रतिष्ठत। काशी में कलाधर हनुमान व नृत्य-विश्वनाथ हैं। काशी में बिस्मिल्ला खाँ हैं। काशी में हज़ारों सालों का इतिहास है जिसमें पंडित कंठे महाराज हैं, विद्याधरी हैं, बड़े रामदास जी हैं, मौजुद्दीन खाँ व इन रसिकों से उपकृत होने वाला अपार जन-समूह है। यह एक अलग काशी है जिसकी अलग तहज़ीब है, अपनी बोली और अपने विशिष्ट लोग हैं। इनके अपने उत्सव हैं, अपने गम। अपना सेहरा-बन्ना और अपना नौहा। आप यहाँ संगीत- भक्ति से, भक्ति को किसी भी धर्म के कलाकार से, कजरी को चैती से, विश्वनाथ को विशालाक्षी से, बिस्मिल्ला खाँ को गंगादव्ार से अलग करके नहीं देख सकते।

काशी के दक्षिण में स्थित बाला जी का मंदिर संगीत आयोजन की एक प्राचीन और अद्भुत पंरपरा लिए हुए है। हनुामन जयंती के अवसर पर यहाँ पाँच दिन तक शास्त्रीय एवं उपशास्त्रीय गायन-वादन का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। बिस्मिल्ला खाँ भी इसमें शामिल होते थे। उनकी विश्वनाथ और बालाजी में पूर्ण श्रद्धा थीं काशी से बाहर भी कहाँ शहनाई बजाते थे तो विश्वनाथ और बालाजी के मंदिर की दिशा में ही अपना मुँह करके बैठतें थे। मुसलमान होते हुए भी उनकी गंगा, काशी, विश्वनाथ, बालाजी में श्रद्धा थी। वे मरते दम तक शहनाई और काशी के न छूटने की बात भी कहते थे। वे काशी को ही स्वर्ग मानते थे। काशी को संस्कृति की पाठशाला कहा गया है और विद्वानों और महापंडितों की नगरी बताया गया है। सभी प्रकार रस्मों-रिवाजों में साम्य है, संगीत भक्ति में विद्यमान है। सभी एक-दूसरें से जुड़े हुए हैं। बिस्मिल्ला खाँ भी काशी से जुड़े हुए हैं।

अकसर समारोहों एवं उत्सवों में दुनिया कहती है ये बिस्मिल्ला खाँ हैं। बिस्मिल्ला खाँ का मतलब- बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई। शहनाई का तात्पर्य- बिस्मिल्ला खाँ का हाथ। हाथ से आशा इतना भर कि बिस्मिल्ला खाँ की फूँक और शहनाई की जादुई जावाज़ का असर हमारे सिर चढ़कर बोलने लगता है। शहानाई में सरगम भरा है। खाँ साहब को ताल मालूम है, राग मालूम है। ऐसा नहीं कि बेताले जाएँगे। शहनाई में सात सुर लेकर निकल पड़े। शहनाई में परवरदिगार, गंगा मइया, उस्ताद की नसीहत लेकर उतर पड़े। दुनिया कहती-सुबहान अल्लाह, तिस पर बिस्मिल्ला खाँ कहते हैं- अलहमदुलिल्लाह। छोटी-छोटी उपज से मिलकर एक बड़ा आकार बनता है। शहनाई का करतब शुरू होने लगता है। बिस्मिल्ला खाँ का संसार सुरीला होना शुरू हुआ। फूँक में अजान की तासीर उतरती चली आई। देखते-देखते शहनाई डेढ़ सतक के साथ से दो सतक का साज बन, साजों की कतार में सरताज हो गई । अमीरुद्दीन की शहनाई गूँज उठी। उस फकीर की दुआ लगी जिसने अमीरुद्दीन से कहा- “बजा, बजा।”

किसी दिन एक शिष्या ने डरते-डरते खाँ साहब को टोका, “बाबा! आप यह क्या करते हैं, इतनी प्रतिष्ठा है आपकी। अब तो भारतरत्न भी मिल चुका है, यह फटी तहमद न पहना करें। अच्छा नहीं लगता, जब भी कोई आता है आप इसी फटी तहमद में सबसे मिलते हैं।” खाँ साहब मुसकराए। लाड़ से भरकर बोले, “धत्‌! पगली ई भारतरत्न हमों शहनईया पे मिला है, लुंगिया पे नाहीं। तुम लोगों की तरह बनाव सिंगार देखते रहते, तो उमर ही बीत जाती हो चुकती शहनाई।” तब क्या खाक रियाज़ हो पाता। ठीक है बिटिया, आगे से नहीं पहनेंगे, मगर इतना बताए देते हैं कि मालिक से यही दुआ है, “फटा सुर न बख्शें। लुंगिया का क्या है, आज फटी है, तो कल सी जाएगी।”

सन्‌ 2000 की बात है। पक्का महाल (काशी विश्वनाथ से लगा हुआ अधिकतम इलाका) से मलाई बरफ़ बेचने वाले जा चुके हैं। खाँ साहब को इसकी कमी खलती है। अब देशी घी में वह बात कहाँ और कहाँ वह कचौड़ी-जलेबी। खाँ साहब को बड़ी शिद्दत से कमी खलती है। अब संगतियों के लिए गायकों के मन में कोई आदर नहीं रहा। खाँ साहब अफसोस जताते हैं। अब घंटों रियाज़ को कौन पूछता है? हैरान हैं बिस्मिल्ला खाँ। कहाँ वह कजली, चैती और अदब का जमाना?

किसी उत्सव या समारोह में जब बिस्मिल्ला खाँ शहनाई बजाते तो लोग तुरंत पहचान लेते थे। उनकी शहनाई की जादुई सरगम सबको मंत्र-मुग्ध कर देती थी। लोग उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते थे। शहनाई साजों की कतार में प्रमुख स्थान प्राप्त कर गई थी। ऐसा लगता है कि एक फकीर की दुआ उन्हें लग गई थी। एक बार उनकी एक शिष्या ने उनकी पहनावे के प्रति उदासीनता को देखते हुए कहा कि आपको ‘भारतरत्न’ मिल चुका है फिर भी आप लोगों से इस फटे तहमद में ही मिलने चले जाते हैं। तब बिस्मिल्ला खाँ ने कहा कि भारतरत्न तो शहनाई को मिला है। बनाव-सिंगार में लगे रहते तो वे रियाज न कर पाते। वे भगवान से यही प्रार्थना करते हैं कि लुंगिया की तरह उनका सुर कभी न फटे। सन्‌ 2000 में पक्का महाल से मलाई बरफ बेचन वाले जा चुके हैं, उनकी कमी बिस्मिल्ला खाँ को अखरती है। उन्हें यह भी आभास होता है कि अब गायकों को अपने संगतकारों की कोई परवाह नहीं है, न ही उनके प्रति आदर-भाव रहा है। उन्हें इस बात का भी दु: ख होता है कि आज घंटों किए जाने वाले रियाज को भी कोई नहीं पूछता।

सचमुच हैरान करती है काशी-पक्का महाल से जैसे मलाई बरफ़ गया, संगीत, साहित्य और अदब की बहुत सारी परंपराएँ लुप्त हो गईं। एक सच्चे सुर साधक और सामाजिक की भाँति बिस्मिल्ला खाँ साहब को इन सबकी कमी खलती है। काशी में जिस तरह बाबा विश्वनाथ और बिस्मिल्ला खाँ एक -दूसरे के पूरक रहे हैं, उसी तरह मुहर्रम-ताजिया और होली-अबीर, गुलाल की गंगा-जमुनी संस्कृति भी एक दूसरे के पूरक रहे हैं। अभी जल्दी ही बहुत कुछ इतिहास बन चुका है। अभी आगे बहुत कुछ इतिहास बन जाएगा। फिर भी कुछ बचा है जो सिर्फ़ काशी में हैं काशी आज भी संगीत के स्वर पर जगती और उसी की थापों पर सोती है। काशी में मरण भी मंगल माना गया है। काशी आनंदकानन है। सबसे बड़ी बात है कि काशी के पास उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ जैसा लय और सुर की तमीज सिखाने वाला नायाब हीरा रहा है जो हमेशा से दो कौमों को एक होने व आपस में भाईचारें के साथ रहने की प्रेरणा लेता रहा।

भारतरत्न से लेकर इस देश के ढेरों विश्वविद्यालयों की मानद उपाधियों से अलंकृत व संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार एवं पद्मविभूषण जैसे सम्मानों से नहीं, बल्कि अपनी अजेय गीतयात्रा के लिए बिस्मिल्ला खाँ साहब भविष्य में हमेशा संगीत के नायक बने रहेंगे। नब्बे वर्ष की भरी-पूरी आयु में 21 अगस्त 2006 को संगीत रसिकों की हार्दिक सभा से विदा हो गए। खाँ साहब की सबसे बड़ी देन हमें यही है कि पूरे अस्सी बरस उन्होंने संगीत को संपूर्णता व एकाधिकार से सीखने की जिजीविषा को अपने भीतर जिंदा रखा।

आज यह देखकर हैरानी होती है कि काशी में संगीत, साहित्य, आदर आदि की सभी परंपराएँ समाप्त हो गई हैं। बिस्मिल्ला खाँ को इनकी कमी बहुत अनुभव हुई। लेकिन धीरे-धीरे सारी बातें इतिहास बनती जा रही हैं। फिर भी काशी में कुछ बचा हुआ है, वहाँ पर आज भी संगीत व्याप्त है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि दो संप्रदायों को एक बनाने वाले और भाईचारे की प्रेरणा देने वाले बिस्मिल्ला खाँ भी काशी में ही रहे हैं। उन्हें भले ही भारतरत्न, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, पद्मविभूषण जैसे अनेक सम्मानों और अनेक मानद उपाधियों से अलंकृत किया गया हो, किंतु उन्हें अपनी अजेय संगीतयात्रा के लिए हमेशा याद किया जाएगा और वे संगीत के नायक बने रहेंगे। 21 अगस्त, 2006 को वह महान विभूति सदा के लिए विदा हो गईं।

शब्दार्थ

ड्‌योढ़ी-दहलीज़। नौबतखाना- प्रवेश दव्ार के ऊपर मंगल ध्वनि बजाने का स्थान। रियाज़-अभ्यास। मार्फत-दव्ारा। श्रंगी-सींग का बना वाद्ययंत्र। मुरछंग-एक प्रकार को लोक वाद्ययंत्र। नेमत-ईश्वर की देन, सुख धन दौलत। सज़दा-माथा टेकना। इबादत-उपासना। तासीर-गुण, प्रभाव, असर। श्रुति-शब्दध्वनि। ऊहापोह-उलझन, अनिश्चितता। तिलिस्म-जादू। गमक-खुशबु। अज़ादारी-मातम करना। बदस्तूर-कायदे से। नैसगिक-प्राकृतिक। दाद-शाबासी। तालीम-शिक्षा। अदब-साहित्य। अलहमदुलिल्लाह-तमाम तारीफ़ ईश्वर के लिए। जिजीविषा- जीने की इच्छा। शिरकत-शामिल होना।

Question 1538 (41 of 206 Based on Passage)

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लेखक दव्ारा रचित व्यक्ति चित्र में लेखक के अनुसार अलीबख्श के घर का खानदानी पेशा क्या हैं?

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Explanation

लेखक दव्ारा रचित व्यक्ति चित्र में लेखक के अनुसार अलीबख्श के घर का खानदानी पेशा शहनाई बजाना हैं।

क्योंकि- अलीबख्श के पापा भी मंदिर की दहलीज में शहनाई की मधुर व मंगल ध्वनि बजाने का काम करते थे।

यह प्रश्न पाठ्या के निम्न खंड से लिया गया है

सन्‌ 1916 से 1922 के आसपास की काशी। पंचगंगा घाट स्थित बाला जी मंदिर की ड्‌योढ़ी। ड्‌योढ़ी का नौबतखाना और नौबतखाने स…

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Question 1539 (42 of 206 Based on Passage)

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लेखक दव्ारा रचित व्यक्ति चित्र में लेखक के अनुसार अमीरुद्दीन का जन्म कहाँ व किस परिवार में हुआ है?

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लेखक दव्ारा रचित व्यक्ति चित्र में लेखक के अनुसार अमीरुद्दीन का जन्म डुमराँव में बिहार के एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ है।

क्योंकि-अमीरूद्दीन के माता-पिता डुमराँव के रहने वाले थे व उनके पापा, दादा व परदादा और मामा भी शहनाई बजाते थे। इसलिए शहनाई रूपी संगीत पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता ही गया हैं।

यह प्रश्न पाठ्या के निम्न खंड से लिया गया है

अमीरुद्दीन का…

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Question 1540 (43 of 206 Based on Passage)

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लेखक मिश्र जी दव्ारा रचित व्यक्ति चित्र में एक-दूसरे के लिए उपयोगी क्या हैं?

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मिश्र जी दव्ारा रचित व्यक्ति चित्र में शहनाई और डुमराँव एक-दूसरे के लिए उपयोगी हैं।

क्योंकि-शहनाई का निर्माण ही डुमराँव के माध्यम से हुआ है अर्थात शहनाई के निर्माण में जो-जो वस्तु लगती है वे सब डुमराँव में ही पाई जाती है। एवं शहनाई की शुरूआत ही डुमराँव से हुई थी।

यह प्रश्न पाठ्या के निम्न खंड से लिया गया है

अमीरुद्दीन का जन्म डुमराँव, बिहार के एक संगी…

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Question 1541 (44 of 206 Based on Passage)

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लेखक दव्ारा रचित व्यक्ति चित्र में लेखक के अनुसार शहनाई बजाने के लिए किस का प्रयोग होता है?

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लेखक दव्ारा रचित व्यक्ति चित्र में लेखक के अनुसार शहनाई बजाने के लिए रीड का प्रयोग होता है।

क्योंकि-ताकि रीड के माध्यम से शहनाई अच्छी तरह से बच सके। अर्थात शहनाई से मधुर आवाज़ आ सके।

यह प्रश्न पाठ्या के निम्न खंड से लिया गया है

अमीरुद्दीन का जन्म डुमराँव, बिहार के एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ है। 5 - 6 वर्ष डुमराँव में बिताकर वह नाना के घर, ननिहाल क…

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Question 1542 (45 of 206 Based on Passage)

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लेखक दव्ारा रचित व्यक्ति चित्र में लेखक के अनुसार रीड अंदर से कैसी होती हैं?

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लेखक दव्ारा रचित व्यक्ति चित्र में लेखक के अनुसार रीड अंदर से पोली होती हैं।

क्योंकि-ताकि शहनाई बजाते समय शहनाई से मधुर ध्वनि आज सके। अर्थात शहनाई में रीड के अंदर पोली होने से शहनाई से मधुर आवाज़ निकलती है।

यह प्रश्न पाठ्या के निम्न खंड से लिया गया है

अमीरुद्दीन का जन्म डुमराँव, बिहार के एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ है। 5 - 6 वर्ष डुमराँव में बिताकर…

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Question 1543 (46 of 206 Based on Passage)

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लेखक दव्ारा रचित व्यक्ति चित्र में लेखक के अनुसार किसके सहारे शहनाई को फूँका जाता है?

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लेखक दव्ारा रचित व्यक्ति चित्र में लेखक के अनुसार रीड के सहारे शहनाई को फूँका जाता हैं।

क्योंकि-ताकि रीड के सहारे शहनाई को फूँकने से शहनाई में से मधुर संगीत निकल सके।

यह प्रश्न पाठ्या के निम्न खंड से लिया गया है

अमीरुद्दीन का जन्म डुमराँव, बिहार के एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ है। 5 - 6 वर्ष डुमराँव में बिताकर वह नाना के घर, ननिहाल काशी में आ गया है…

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Question 1544 (47 of 206 Based on Passage)

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लेखक दव्ारा रचित व्यक्ति चित्र में लेखक के अनुसार नरकट किससे बनाई जाती हैं?

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Explanation

लेखक दव्ारा रचित व्यक्ति चित्र में लेखक के अनुसार नरकट (एक प्रकार की घास) से बनाई जाती हैं।

क्योंकि-यह एक विशेष प्रकार की घास होती है, जो शहनाई के निर्माण में बहुत आवश्यक होती है।

यह प्रश्न पाठ्या के निम्न खंड से लिया गया है

अमीरुद्दीन का जन्म डुमराँव, बिहार के एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ है। 5 - 6 वर्ष डुमराँव में बिताकर वह नाना के घर, ननिहाल काशी…

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Question 1545 (48 of 206 Based on Passage)

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लेखक दव्ारा रचित व्यक्ति चित्र में लेखक के अनुसार नरकट कहाँ पाई जाती हैं?

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लेखक दव्ारा रचित व्यक्ति चित्र में लेखक के अनुसार नरकट डुमराँव में मुख्यत: सोन नदी के किनारे पर पाई जाती है।

क्योंकि-नरकट नामक घास डुमराँव के अलावा ओर कहीं नहीं मिलती हैं। और यह विशेष प्रकार की घास होने के कारण डुमराँव में सोन नदी के किनारे ही पाई जाती है।

यह प्रश्न पाठ्या के निम्न खंड से लिया गया है

अमीरुद्दीन का जन्म डुमराँव, बिहार के एक संगीत प्रेम…

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Question 1546 (49 of 206 Based on Passage)

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लेखक दव्ारा रचित व्यक्ति चित्र में लेखक के अनुसार अमीरुद्दीन के परदादा का नाम क्या था व वे कहाँ के निवासी थे।

उत्तर- अमीरुद्दीन के परदादा का नाम उस्ताद सलार हुसैन खाँ था जो डुमराँव के निवासी थे।

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Explanation

अमीरुद्दीन के परदादा के माता व पिता ने उनका नाम हुसैन खाँ रखा था। अत: अमीरुद्दीन के परदादा के माता व पिता डुमराँव के ही रहने वाले थे। अर्थात अमीरुद्दीन के परदादा पीढ़ीयों से ही डुमराँव में ही रहते हैं।

यह प्रश्न पाठ्या के निम्न खंड से लिया गया है

अमीरुद्दीन का जन्म डुमराँव, बिहार के एक संगीत प्रेमी परिवार में हुआ है। 5 - 6 वर्ष डुमराँव में बिताकर वह …

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