क्षितिज(Kshitij-Textbook) [CBSE (Central Board of Secondary Education) Class-10 (Term 1 & 2 MCQ) Hindi]: Questions 125 - 135 of 1777

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Passage

पाठ 13

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

″ रहस्यावद और छायावाद की अति सूक्ष्मता,

काल्पनिकता आदि के विरुद्ध सर्वेश्वर दयाल

सक्सेना समाजवाद और साम्यवाद से प्रभावित

होकर अति यथार्थ भावनाओं को बड़ी सजीवता

से अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। जिससे

सांस्कृतिक जागरुकता पाठक के हृदय में बरवस

पैदा हो जाती है। नि: संदेह सर्वेश्वर दयाल

सक्सेना एक उच्चकोटि के साहित्यकार रहे हैं।

इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता। ″

जीवन-परिचय- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जन्म उत्तर-प्रदेश के बस्ती जिलें में सन्‌ 1927 में हुआ। उन्होंने ऐंग्ली संस्कृत उच्च विद्यालय, बस्ती से हाई स्कुल परीक्षा पास की। उसके बाद उन्होंने क्वींस कॉलेज, वाराणसी में अध्ययन किया तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्होंने आडीटर जनरल इलाहाबाद के कार्यालय से अपने कर्ममय जीवन की शुरूआत की। तत्पश्चात वे अध्यापक, क्लर्क और उसके बाद आकाशवाणी में सहायक प्रोड्‌यूसर के रूप में कार्य किया। उन्होंने सन्‌ 1965 में साप्ताहिक पत्रिका ‘दिनमान’ के उप-संपादक के पद पर भी कार्य किया। जीवन के अंतिम वर्षो में उन्होंने ‘पराग’ नामक बच्चों की लोकप्रिय मासिक पत्रिका का सफलतापूर्वक संपादन किया। वे ‘तीसरा सप्तक’ के भी कवि थे। सन्‌ 1984 में उनका देहांत हो गया।

प्रमुख रचनाएँ- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक, यात्रा-वृतांत, निबंध जैसी अनेक विधाओं में रचना की है। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं- ′ काठ की घंटियाँ, बाँस का फूल, एक सुनी नाव, गरम हवाएँ, कुआनों नदी, जंगल का दर्द, खुटियों पर टँगे लोग उनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं। बकरी, सोया हुआ जल, कल फिर भात आएगा, अब गरीबी हटाओ, राजा बाज बहादुर और रानी रूपमती, लाख की नाक, लड़ाई, भौं-भौं, बतूता का जूता, पागल कुत्तों का मसीहा, चरचे और चरखे उनकी अन्य उल्लेखनीय रचनाएँ हैं।

साहित्यिक विशेषताएँ- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने बच्चों से लेकर प्रबुद्ध लोगों तक के लिए साहित्य की रचना की। उन्होंने अपने समय के समाज को बड़ी गहराई से देखा और बड़े कलात्मक ढंग से उस यथार्थ को अभिव्यक्त किया। उन्होंने समाज में व्याप्त विसंगतियों और अव्यवस्थाओं पर करारी चोट की है। उनको समस्त रचनाएँ स्वाभाविक एवं सहजता को अपनाए हुए हैं। उन्होंने भारतीय गाँवों और यहाँ की परम्पराओं का बड़ा ही मनमोहक चित्रण किया है। नई कविता के कवियों में उनका विशिष्ट स्थान है।

भाषा-शैली- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की भाषा अत्यंत सरल, सहज एवं लोकभाषा की महक लिए हुए है। उन्होंने अपनी साधारण और सामान्य भाषा के माध्यम से असाधारण और असामान्य की अभिव्यक्ति बड़ी सफलता से की है।

मानवीय करुणा की दिव्य चमक

प्रस्तुत संस्मरण में लेखक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने फ़ादर कामिल बुल्के की चारित्रिक और व्यवहारिक विशेषताओं को उकेरा है। यूरोप के बेल्जियम में जन्में फ़ादर बुल्के स्वयं को भारतीय कहते थे। उनकी जन्म भूमि रैम्स चैपल गिरजों, पादरियों, धर्म गुरुओं, संतों की भूमि कही जाती है। परंतु उन्होंने भारत को ही अपनी कर्मभूमि बनाया। लेखक के फ़ादर बुल्के से घनिष्ठ संबंध थे। फ़ादर बुल्के ने हिन्दी को समृद्ध और राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने में भरसक सहयोग दिया। लेखक का मानना है, जब तक रामायण है तब तक फ़ादर बुल्के को याद किया जाएगा।

फ़ादर को ज़हरबाद से नहीं मरना चाहिए था। जिसकी रगों में दूसरों के लिए मिठास भरे अमृत के अतिरिक्त और कुछ नहीं था उसके लिए इस ज़हर का विधान क्यों हो? यह सवाल किस ईश्वर से पूछें? प्रभु की आस्था ही जिसका अस्तित्व था। वह देह की इस यातना की परीक्षा की उम्र की आखिरी देहरी पर क्यों दें? एक लंबी, पादरी के सफ़ेद चोगे से ढकी आकृति सामने हैं- गोरा रंग, सफ़ेद झाई मारती भूरी दाढ़ी, नीली आँखे-बाँहें खोल गले लगाने को आतुर। इतनी ममता, इतना अपनत्व। इस साधु में अपने हर एक प्रियजन के लिए उमड़ता रहता था। मैं पैंतीस साल इसका साक्षी था। तब भी जब वह इलाहाबाद में थे और तब भी जब वह दिल्ली आते थे। आज उन बाँहों का दवाब मैं अपनी छाती पर महसूस करता हूँ।

फ़ादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है। उनको देखना करुणा के निर्मल जल में स्नान करने जैसा था और उनसे बात करना कर्म के संकल्प से भरना था। मुझे ‘परिमल’ के वे दिन याद आते हैं जब हम सब एक पारिवारिक रिश्ते में बँधे जैसे थे जिसके बड़े फ़ादर बुल्के थे। हमारे हँसी-मज़ाक में वह निर्लिप्त शामिल रहते, हमारी गोष्ठियों में वह गंभीर बहस करते, हमारी रचनाओं पर बेबाक राय और सुझाव देते और हमारे घरों के किसी भी उत्सव और संस्कार में वह बड़े भाई और पुरोहित जैसे खड़े हो हमें अपने आशीषों से भर देते। मुझे अपना बच्चा और फ़ादर का उसके मुख में पहली बार अन्न डालना याद आता है और नीली आँखों की चमक में तैरता वात्सल्य भी-जैसे किसी ऊँचाई पर देवदारु की छाया में खड़े हों।

संस्मरण के आरंभ में लेखक बताता है कि फ़ादर बुल्के की मृत्यु एक ज़हरीले फोड़े के कारण हुई थी। लेखक को यह समझ में नहीं आ रहा था कि जिसके अंदर प्रेम का असीम मिठास भरा हुआ था उसमें ज़हर कहाँ से आया? भगवान में आस्था और विश्वास रखने वाले के अंतिम दिन इतने घोर कष्ट में व्यतीत हुए? लेखक बताता है कि फ़ादर का शरीर लम्बा, चौड़ा था, रंग गौरा था, एकदम सफेद दाढ़ी और नीली आँखें थी। वे एक मिलनसार व्यक्ति थे। उनमें ममत्व और अपनत्व की भावना थी। फ़ादर को याद करना उदासी से भरे शांत संगीत जैसा था। वे व्यवहार में निर्मलता और कार्य करने का दृढ़ संकल्प देने वाले थे। ‘परिमल’ पत्रिका के माध्यम से लेखक की उनसे भेंट हुई थी और धीरे-धीरे उनसे पारिवारिक संबंध बन गए थे। वे गंभीर विषयों पर बहस करते और बेहिचक उचित सलाह भी देते। वे प्रत्येक उत्सव पर बड़े भाई और पुरोहित के रूप में आशीर्वाद देने आते। उनका सानिध्य देवदार के वृक्ष के समान सघन, विशाल एवं शीतलता प्रदान करने वाला था।

कहाँ से शुरू करें! इलाहाबाद की सड़कों पर फ़ादर की साइकिल चलती दीख रही हैं। वह हमारे पास आकर रुकती है मुसकराते हुए उतरते हैं, ‘देखिए-देखिए मैंने उसे पढ़ लिया है और मैं कहना चाहता हूँ …’ उनको क्रोध में कभी नहीं देखा, आवेश में देखा है और ममता तथा प्यार में लबालब छलकता महसूस किया है। अकसर उन्हें देखकर लगता कि बेल्जियम में इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में पहुँचकर उनके मन में संन्यासी बनने की इच्छा कैसे जाग गई जबकि घर भरा-पूरा था-दो भाई, एक बहिन, माँ, पिता सभी थे।

“आपको अपने देश की याद आती है?”

“मेरा देश तो अब भारत है।”

“मैं जन्मभूमि की पूछ रहा हूँ?”

“हाँ आती है। बहुत सुंदर है मेरी जन्मभूमि-रेम्सचैपल।”

“घर में किसी की याद?”

“माँ की याद आती है- बहुत याद आती है।”

फिर अकसर माँ की स्मृति में डूब जाते देखा है। उनकी माँ की चिट्‌िठयाँ अकसर उनके पास आती थीं। अपने अभिन्न मित्र डॉ. रघुवंश को वह उन चिट्‌िठयों को दिखाते थे। पिता और भाइयों के लिए बहुत लगाव मन में नहीं था। पिता व्यवसायी थे। एक भाई वहीं पादरी हो गया है। एक भाई काम करता है, उसका परिवार है। बहन सख्त और ज़िद्दी थी। बहुत देर से उसने शादी की। फ़ादर को एकाध बार उसकी शादी की चिंता व्यक्त कर उन दिनों देखा था। भारत में बस जाने के बाद दो या तीन बार अपने परिवार से मिलने भारत से बेल्जियम गए थे।

“लेकिन मैं तो संन्यासी हूँ।”

“आप सब छोड़कर क्यों चले आए?”

“प्रभु की इच्छा थी।” वह बालकों की सी सरलता से मुसकराकर कहते, “माँ ने बचपन में ही घोषित कर दिया था कि लड़का हाथ से गया। और सचमुच इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष की पढ़ाई छोड़ फ़ादर बुल्के संन्यासी होने जब धर्म गुरु के पास गए और कहा कि मैं संन्यास लेना चाहता हूँ तो एक शर्त रखी (संन्यास लेते समय संन्यास चाहने वाला शर्त रख सकता है) कि मैं भारत जाऊँगा।”

“भारत जाने की बात क्यों उठी?”

“नहीं जानता, बस मन में यह था।”

लेखक ने फ़ादर बुल्के का उस समय से परिचय दिया है जब वे इलाहाबाद की सड़कों पर साइकिल से आते-जाते देखे जाते थे। वे अनुभवी थे। उन्हें कभी क्रोध की मुद्रा में नही देखा गया। दूसरों के प्रति उनके मन में हमेशा प्रेम रहता था। उन्हें देखकर लेखक के मन में विचार उठता कि वे इंजिनियरिंग छोड़कर संन्यासी क्यों बन गए। उनका भरा-पूरा परिवार था। उनकी नज़रों में उनकी जन्मभूमि रैम्स चैपल बहुत सुंदर है। उन्हें अपनी माँ की बहुत याद आती है। भारत आने के बाद वे दो या तीन बार ही बेल्जियम गए थे। उनके बचपन को देखकर उनकी माँ ने कहा था कि वह हमारे हाथ से निकल चुका है। संन्यास लेते समय उन्होंने भारत आने की शर्त रखी।

उनकी शर्त मान ली गई और वह भारत आ गए। पहले ‘जिसेट संघ’ में दो साल पादरियों के बीच धर्माचार की पढ़ाई की। फिर 9 - 10 वर्ष दार्जिलिंग में पढ़ते रहे। कोलकता से बी. ए. किया और फिर इलाहाबाद से एम. ए. । उन दिनों डॉ. धीरेंद्र वर्मा हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे। शोध प्रबंध प्रयाग विश्वविद्यालय के ंहंदी विभाग में रहकर 1950 में पूरा किया-रामकथा: उत्पति और विकास। ‘परिमल’ में उसके अध्याय पढ़े गए थे। फ़ादर ने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लू बर्ड’ का रूपांतर भी किया है ‘नीलपंछी’ के नाम से। बाद में वह सेंट जेवियर्स कॉलेज रांची में हिंदी तथा संस्कृति विभाग के विभाध्यक्ष हो गए और यहीं उन्होंने अपना प्रसिद्ध अंग्रेंजी हिंदी कोश तैयार किया और बाइबिल का अनुवाद भी … . और वहीं बीमार पड़े, पटना आए। दिल्ली आए और चले गए-47 वर्ष देश में रहकर और 73 वर्ष की ज़िदगी जीकर।

फ़ादर बुल्के संकल्प से संन्यासी थे। कभी-कभी लगता है वह मन में संन्यासी नहीं थे। रिश्ता बनाते थे तो तोड़ते नहीं थे। दसियों साल बाद मिलने के बाद भी उसकी गंध महसूस होती थी। वह जब भी दिल्ली आते जरूर मिलते-खोजकर, समय निकालकर, गर्मी, सर्दी, बरसात झेलकर मिलते, चाहे दो मिनट के लिए ही सही। यह कौन संन्यासी करता है? उनकी चिंता हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की चिंता थीं। हर मंच में इसकी तकलीफ़ बयान करते, इसके लिए अकाट्‌य तर्क देते। बस इसी एक सवाल पर उन्हें झुंझलाते देखा है और हिंदी वालों दव्ारा ही हिंदी की उपेक्षा पर दुख करते उन्हें पाया है। घर-परिवार के बारे में, निजी दुख-तकलीफ़ के बारे में पूछना उनका स्वभाव था और बड़े से बड़े दुख में उनके मुख से सांत्वना के जादू भरे दो शब्द सुनना एक ऐसी रोशनी से भर देता था जो किसी गहरी तपस्या से जनमती है। ‘हर मौत दिखाती है जीवन को नयी राह’ । मुझे अपनी पत्नी और पुत्र की मृत्यु याद आ रही है और फ़ादर के शब्दों से झरती विरल शांति भी।

फ़ादर बुल्के ने भारत आकर पादरियों के बीच धर्माचरण की पढ़ाई करने के बाद कोलकत्ता से बी. ए. और इलाहाबाद से एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन्‌ 1950 में उन्होंने ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’ पर शोध कार्य किया। वे जेवियर्स कॉलेज राँची में हिंदी और संस्कृत विभाग के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने अंग्रेजी-हिंदी कोश तैयार किया और बाइबिल का अनुवाद किया। रांची में बीमार होने के कारण वे पटना आ गए और 73 वर्ष की आयु में स्वर्ग सिधार गए। संबंधों की घनिष्टता के कारण वे संन्यासी होते हुए भी संन्यासी नहीं लगते थे। वे दिल्ली आने पर लेखक से अवश्य मिलते थे। उनकी इच्छा थी कि हिंदी राष्ट्रभाषा बने। हिंदी के प्रति लोगों की उदासीनता देखकर वे झुंझला उठते थे। वे जिससे भी मिलते उसके घर-परिवार, सुख-दुख की अवश्य पूछते थे। बड़े-से-बड़े दुख में भी उनके द्वारा बोले गए सांत्वना के दो शब्द जीवन में आशा का संचार करते थे।

आज वह नहीं है। दिल्ली में बीमार रहे और पता नहीं चला। बाँहे खोलकर इस बार उन्होंने गले नहीं लगाया। जब देखा तब वे बाँहे दोनों हाथों की सूजी उँगलियों को उलझाए ताबूत में जिस्म पर पड़ी थीं। जो शांति बरसती थी वह चेहरे पर थिर थी। तरलता जम गई थी। वह 18 अगस्त, 1982 की सुबह दस बजे का समय था। दिल्ली में कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में उनका ताबूत एक छोटी-सी नीली गाड़ी में से उतारा गया। कुछ पादरी, रघुवंश जी का बेटा और उनके परिजन राजेश्वरसिंह उसे उतार रहे थे। फिर उसे उठाकर एक लंबी संकरी, उदास पेड़ों की घनी छाह वाली सड़क से कब्रगाह के आखिरी छोर तक ले जाया गया जहाँ धरती की गोद में सुलाने के लिए कब्र अवाक्‌ मुँह खोले लेटी थी। ऊपर करील की घनी छाँह थी और चारों ओर कब्रें और तेज धूप के वृत। जैनेंद्र कुमार, विजयेंद्र स्नातक, अजित कुमार, डॉ. निर्मला जैन और मसीही समुदाय के लोग, पादारीगण, उनके बीच में गैरिक वसन पहने इलाहाबाद के प्रसिद्ध विज्ञान-शिक्षक डॉ. सत्यप्रकाश और डॉ रघुवंश भी जो अकेले उस संकरी सड़क की ठंडी उदासी में बहुत पहले से खामोश दुख की किन्हीं अपरिचित आहटों से दबे हुए थे, सिमट आए थे कब्र के चारों तरफ़। फ़ादर की देह पहले कब्र के ऊपर लिटाई गईर्। मसीही विधि से अंतिम संस्कार शुरू हुआ। रांची के फ़ादर पास्कल तोयना के दव्ारा। उन्होंने हिंदी में मसीही विधि से प्रार्थना की फिर सेंट जवियर्स के रेक्टर फ़ादर पास्कल ने उनके जीवन और कर्म पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा, ‘फ़ादर बुल्के धरती में जा रहे हैं। इस धरती से ऐसे रत्न और पैदा हों।’ डॉ. सत्यप्रकाश ने भी अपनी श्रद्धांजलि में उनके अनुकरणीय जीवन को नमन किया। फिर देह कब्र में उतार दी गई … ।

मैं नहीं जानता इस संन्यासी ने कभी सोचा था या नहीं कि उसकी मृत्यु पर कोई रोएगा। लेकिन उस क्षण रोने वालों की कमी नहीं थी। (नम आँखों को गिनना स्याही फेलाना है।)

लेखक को इस बात का पश्चाताप है कि फ़ादर बुल्के बीमारी की अवस्था में दिल्ली आए और उन्हें पता भी नहीं चला। लेखक को उनके दर्शन ताबूत में ही हुए। उनको दिल्ली के कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में 18 अगस्त, 1982 को प्रबुद्ध साहित्यकारों, विज्ञान-शिक्षकों की उपस्थिति में रांची के फ़ादर पास्कल तोयना के द्वारा पूरे विधि-विधान के साथ कब्र में उतारा गया। श्रदांजलि अर्पित करते हुए फ़ादर पास्कल ने कहा, ″ फ़ादर बुल्के धरती में जा रहे हैं। इसी धरती से ऐसे रत्न और पैदा हों। ″ सभी ने उनको नमन दिया। लेखक का कहना है कि शायद ही ″ फ़ादर बुल्के ने सोचा हो कि उनकी मृत्यु पर कोई रोएगा भी, किंतु वहाँ उपस्थित सभी लोग रो रहे थे, जिनकी गिनती नहीं की जा सकती थी।

इस तरह हमारे बीच से वह चला गया जो हममें से सबसे अधिक छायादार फल-फूल गंध से भरा और सबसे अलग, सबका होकर, सबसे ऊँचाई पर, मानवीय करुणा की दिव्य चमक में लहलहाता खड़ा था। जिसकी स्मृति हम सबके मन में जो उनके निकट थे किसी यज्ञ की पवित्र आग की आँच की तरह आजीवन बनी रहेगी। मैं उस पवित्र ज्योति की याद में श्रद्धानत हूँ।

लेखक दुख व्यक्त करता हुआ कहता है कि छायादार फल-फूल गंधयुक्त, सबसे अलग और सबका बनकर रहने वाला जो सबको मानवता का पाठ पढ़ाता था, वह प्रकृति में विलीन हो गया। उनकी पवित्र यादें सबके दिलों में यज्ञ की पवित्र अग्नि की भाँति सबमें बसी हुई हैं। लेखक उस महान आत्मा को श्रद्धापूर्वक नमस्कार करता है।

शब्दार्थ

ज़हरबाद-गैंग्रीन। आस्था-विश्वास। देहरी-दहलीज। पादरी-ईसाई धर्म का पुरोहित या आचार्य। आतुर-अधीर, उत्सुक। निर्लिप्त-जो लिप्त न हो। आवेश-जोश। लबालब-भरा हुआ। धर्माचार- धर्म का पालन। रूपांतर- किसी वस्तु का बदला हुआ रूप। अकाट्‌य- जो कट न सके। विरल-कम मिलने वाली। ताबूत- शव या मुरदा ले जाने वाला संदूक या बक्सा। गैरिक वसन- साधुओं दव्ारा धारण किए जाने वाले गेरुए वस्त्र। श्रदव्ानत- प्रेम और भक्तियुक्त पूज्यभाव।

इस पाठ को कंठस्थ कर निम्न प्रशनो के उत्तर दीजिए

Question 125 (125 of 127 Based on Passage)

Question MCQ▾

फ़ादर ने अपना शोध प्रबंध किस पर लिखा था-

Choices

Choice (4)Response

a.

विश्वसंरचना

b.

कृष्णकथा

c.

प्रेमकथा

d.

रामकथा

Edit

Question 126 (126 of 127 Based on Passage)

Question MCQ▾

फ़ादर बुल्के के अभिन्न मित्र थे-

Choices

Choice (4)Response

a.

डॉ. राकेश

b.

डॉ. रामदेव

c.

डॉ. रमेश

d.

डॉ. रघुवंश

Edit

Question 127 (127 of 127 Based on Passage)

Question MCQ▾

फ़ादर बुल्के की जन्मभूमि थी-

Choices

Choice (4)Response

a.

रेकचैपल

b.

रेक्सचैपल

c.

रेम्सचैपल

d.

रेसचैपल

Edit

Question 128

Write in Short Short Answer▾

कवि मंगलेंश डबराल दव्ारा रचित उनकी रचनाओं मेें अलंकारो का प्रयोग किस प्रकार का दृष्टव्य है?

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Question 129

Write in Short Short Answer▾

माथुर जी दव्ारा रचित नाटक का क्या नाम है?

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Question 130

Write in Short Short Answer▾

डबराल जी ने दिल्ली में आकर कहाँ-कहाँ काम किया?

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Question 131

Write in Short Short Answer▾

तुलसीदास जी ने अपने दव्ारा रचित काव्यों में किन-किन छंदों का प्रयोग किया है?

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Question 132

Write in Short Short Answer▾

कविवर ऋतुराज का जन्म कहाँ व किस सन्‌ में हुआ?

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Passage

(3)

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी अहो मुनीसु महाभट मानी।।

पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु। चहत उड़ावन फँूकि पहारू।।

इहाँ कुम्हड़बतिआ कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं।।

देख कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।

भृगसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी।।

सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई।।

बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहू पा परिअ तुम्हारें।।

कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा।।

जो बिलोक अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।

सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर।।

Question 133 (1 of 5 Based on Passage)

Describe in Detail Subjective▾

तुलसीदास जी दव्ारा रचित उपर्युक्त प्रसंग में किस समय का वर्णन है?

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Explanation

तुलसीदास जी दव्ारा रचित प्रस्तुत संवाद में उस समय का वर्णन है जब लक्ष्मण जी क्रोधयुक्त परशुराम जी के भाव को देखकर उन पर हँसते हुए कहते हैं।

क्योंकि-लक्ष्मण जी का स्वभाव भी ऐसा है। अर्थात वे व्यवहार रूप से बहुत ही चचंल है।

प्रसंग- तुलसीदास जी दव्ारा रचित प्रस्तुत संवाद में उस समय का वर्णन है जब लक्ष्मण जी क्रोधयुक्त परशुराम जी के भाव को देखकर उन पर हँ…

… (1489 more words) …

Question 134 (2 of 5 Based on Passage)

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तुलसीदास जी दव्ारा रचित उपर्युक्त प्रसंग में लक्ष्मण जी परशुराम जी पर व्यंग्य करते हुए क्या-क्या कहते हैं?

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Explanation

लक्ष्मण जी हँसकर व्यंग्य स्वरूप शब्द बोलते है कि हे मुनीश्वर आप तो अपने को एक महान योद्धा समझते हो और बार-बार मुझे अपना कुल्हाड़ा दिखाकर डराते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आप तो फूँक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं लेकिन इस सभा में काशी फल अर्थात कच्चे फल के समान कोई भी कमजोर या दुर्बल व्यक्ति नहीं है जो आपकी तर्जनी (अंगूठे की पास वाली उँगली) उँगली को देखक…

… (2259 more words) …

Question 135 (3 of 5 Based on Passage)

Describe in Detail Subjective▾

तुलसीदास जी दव्ारा रचित उपर्युक्त प्रसंग में परशुराम जी को उपरोक्त व्यंग्य बोलकर बाद में लक्ष्मण जी ने क्या कहा?

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Explanation

हे महामुनि! इन सबको देखकर मैंने कुछ गलत कहा हो तो उसे सहन करके मुझे माफ कर दिजिए। फिर लक्ष्मण जी के शब्दों को सुनकर परशुराम जी गुस्से के साथ गंभीर वचनों से बोले।

क्योंकि-फिर अगर उस चंचल व्यक्ति को अपनी गलती का ऐहसास होता है तो वह उनसे माफी भी मांगता है। जैसेे कि उपरोक्त संवाद में लक्ष्मण ने परशुराम जी के साथ किया।

प्रसंग- तुलसीदास जी दव्ारा रचित प्रस…

… (1588 more words) …