कृतिका (Kritika-Textbook) [CBSE (Central Board of Secondary Education) Class-10 (Term 1 & 2 MCQ) Hindi]: Questions 122 - 137 of 461
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Passage
हम एक सुर से दौड़े हुए आए और घर में घुस गए। उस समय बाबू जी बैठक के ओसारे (बरामदा) में बैठकर हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे। उन्होंने हमें बहुत पुकारा पर उनकी अनसुनी करके हम दौड़ते हुए मइयाँ के पास चले गए। जाकर उसी की गोद में शरण ली।
Question 122 (1 of 1 Based on Passage)
Passage
और वह रहस्यमयी सितारों भरी रात मुझमें सम्मोहन जगा रही थी, कुछ इस कदर कि उन जादू भरे क्षणों में मेरा सब कुछ स्थगित था, अर्थहीन था … मैं, मेरी चेतना, मेरा आस-पास। मेेरे भीतर-बाहर सिर्फ़ शून्य ही था और थी अतींद्रियता (इन्द्रियों से परे) में डूबी रोशनी की वह जादुई झालर।
धीरे-धीरे एक उजास (प्रकाश, उजाला) उस शून्य से फूटने लगा … एक प्रार्थना होंठों को छूने लगी … . साना-साना हाथ जोड़ि, गर्दहु प्रार्थना। हाम्रो जीवन तिम्रो कौसेली अर्थात (छोटे-छोटे हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रही हूँ कि मेरा सारा जीवन अच्छाइयों को समर्पित हो) । आज सुबह की प्रार्थना के ये बोल मैंने एक नेपाली युवती से सीखे थे।
Question 123 (1 of 5 Based on Passage)
Question 124 (2 of 5 Based on Passage)
Question 125 (3 of 5 Based on Passage)
Question 126 (4 of 5 Based on Passage)
Question 127 (5 of 5 Based on Passage)
Passage
खतरा अब धीरे-धीरे बढ़ने लगा था। रास्ते और भी सँकरे होते जा रहे थे। कई बार लगता जैसे रास्तों को इंच टेप से नापकर एक जीप जितना ही चौड़ा बनाया गया है कि ज़रा भी संतुलन बिगड़े, इंच भर भी जीप इधर-उधर खिसके तो हम सीधे घाटियों में! इन रास्तों पर जगह-जगह लिखी चेतावनियाँ भी हमें खतरों के प्रति सजग कर रही थींं सामने ही लिखा था- ′ धीरे चलाएँ, घर में बच्चे आपका इंतज़ार कर रहे हैं।
थोड़ और आगे बढ़े कि फिर एक चेतावनी- ‘वी केयर, मैन इटर अराउंड।’ पर हमें नरभक्षी वाले जानवर नहीं, दूध देने वाले याक दिखे जो काले-काले ढेर सारे याक थे। पहाड़ों पर गिरती बर्फ़ से प्राकृतिक ढंग से रक्षा करने वाले घने-घने बालों वाले याक।
Question 128 (1 of 3 Based on Passage)
Question 129 (2 of 3 Based on Passage)
Question 130 (3 of 3 Based on Passage)
Passage
पास ही में कंपनी बाग के फूलों की खुशबू से वायुमंडल आमोदित हो उठा था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था जिसे भेदकर दुलारी की स्वरलहरी गूँज उठी-
‘एही ठैयाँ झुलनी हेरानी हो रामा, कासों मैं पूछूँ?’
बूट की ठोकर खाकर दोपहर को टुन्नू जिस स्थान पर गिरा था उसी स्थल पर दुष्टि जमाए हुए दुलारी ने दोहराया, ‘एही ठैयाँ झुलनी हेरानी हो रामा’ और फिर चारों ओर उद्भांत (भ्रमित चित्त, हैरान) दृष्टि घुमाते हुए उसने गाया- ‘कासों मैं पूछूँ?’ उसके अधर-प्रांत पर स्मित की एक क्षीण रेखा-सी खिंची। उसने गीत का दूसरा चरण गाया- ‘सास से पूछूँ, ननदिया से पूछूँ, देवरा से पूछत लजानी हो रामा?’
Question 131 (1 of 2 Based on Passage)
Question 132 (2 of 2 Based on Passage)
Passage
मैं क्यों लिखता हूँ? यह प्रश्न बड़ा सरल जान पड़ता है। पर बड़ा कठिन भी है। क्योंकि इसका सच्चा उत्तर लेखक के आंतरिक जीवन के स्तरों से संबंध रखता है। उन सबको संक्षेप में कुछ वाक्यों को बाँध देना आसान तो नहीं ही हैं, न जाने संभव भी है या नहीं? इतना ही किया जा सकता है कि उनमें से कुछ का स्पर्श किया जाए-विशेष रूप से ऐसों का जिन्हें जानना दूसरों के लिए उपयोगी हो सकता है।
Question 133 (1 of 4 Based on Passage)
Question 134 (2 of 4 Based on Passage)
Question 135 (3 of 4 Based on Passage)
Question 136 (4 of 4 Based on Passage)
Passage
मैं क्यों लिखता हूँ? यह प्रश्न बड़ा सरल जान पड़ता है। पर बड़ा कठिन भी है। क्योंकि इसका सच्चा उत्तर लेखक के आंतरिक जीवन के स्तरों से संबंध रखता है। उन सबको संक्षेप में कुछ वाक्यों को बाँध देना आसान तो नहीं ही हैं, न जाने संभव भी है या नहीं? इतना ही किया जा सकता है कि उनमें से कुछ का स्पर्श किया जाए-विशेष रूप से ऐसों का जिन्हें जानना दूसरों के लिए उपयोगी हो सकता है। एक उत्तर तो यह है कि मैं इसलिए लिखता हूँ कि वह स्वयं जानना चाहता है कि क्यों लिखता हूँ- लिखे बिना इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल सकता है। वास्तव में सच्चा उत्तर यही है। लिखकर ही लेखक उस आभ्यंतर (भीतरी का, अंदरुनी) विवशता को पहचानता है जिसके कारण उसने लिखा-और लिखकर ही वह उससे मुक्त हो जाता है। मैं भी आंतरिक विवशता से मुक्ति पाने के लिए, तटस्थ होकर उसे देखने और पहचान लेने के लिए लिखता हूँ। मेरा विश्वास है कि सभी कृतिकार-क्योंकि सभी लेखक कृतिकार नहीं होते; न उनका सब लेखन ही कृति होता है-सभी कृतिकार इसलिए लिखते हैं। यह ठीक है कि कुछ ख्याति मिल जाने के बाद कुछ बाहर की विवशता से भी लिखा जाता है- संपादकों के आग्रह से, प्रकाशक के तकाजे से, आर्थिक आवश्यकता से। पर एक तो कृतिकार हमेशा अपने सम्मुख ईमानदारी से यह भेद बनाए रखता है कि कौन-सी कृति भीतरी प्रेरणा का फल है, कौन-सा लेखन बाहरी दबाव का, दूसरे यह भी होता है कि बाहर का दबाव वास्तव में दबाव नहीं रहता, वह मानो भीतरी उन्मेष (प्रकाश, दीप्ि त) का निमित्ति (कारण) बन जाता है।
यहाँ पर कृतिकार के स्वभाव और आत्मानुशासन का महत्व बहुत होता हे। कुछ आलसी जीव होते हैं कि बिना इस बाहरी दबाव के लिख ही नहीं पाते-इसी के सहारे उनके भीतर की विवशता स्पष्ट होती है- यह कुछ वैसा ही है जैसे प्रात: काल की नींद खुल जाने पर कोई बिछौने पर तब तक पड़ा रहे जब तक घड़ी का एलार्म न बज जाए। इस प्रकार वास्तव में कृतिकार बाहर के दबाव के प्रति समर्पित नहीं हो जाता है, उसे केवल एक सहायक यंत्र (एलार्म घड़ी) की तरह काम मे लाता है जिससे भौतिक यथार्थ के साथ उसका संबंध बना रहे। मुझे इस सहारे की ज़रूरत नहीं पड़ती लेकिन कभी उससे बाधा भी नहीं होती। उठने वाली तुलना को बनाए रखूँ तो कहूँ कि सबेरे उठ जाता हूँ अपने आप ही, पर अलार्म भी बज जाए तो कोई हानि नहीं मानता।
यह भीतरी विवशता क्या होती है? इसे बखानना बड़ा कठिन है। क्या वह नहीं होती यह बताना शायद कम कठिन होता है। या उसका उदाहरण दिया जा सकता है-कदाचित् वही अधिक उपयोगी होगा। अपनी एक कविता की कुछ चर्चा करूँ जिससे मेरी बात स्पष्ट हो जाएगी।
मैं विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ, मेरी नियमित शिक्षा उसी विषय में हुई। अणु क्या होता है, कैसे हम रेडियम-धर्मी तत्त्वों का अध्ययन करते हुए विज्ञान की उस सीढ़ी तक पहुँचे जहाँ अणु का भेदन संभव हुआ, रेडियम-धर्मिता के क्या प्रभाव होते हैं- इन सबका पुस्तकीय या सैद्धांतिक ज्ञान तो मुझेे था। फिर जब अणु-बम हिरोशिमा में गिरा, तब उसके समाचार मैंने पढ़े; और उसके परवर्ती प्रभावों का भी विवरण पढ़ता रहा। इस प्रकार उसके प्रभावों का ऐतिहासिक, प्रमाण भी सामने आ गया। विज्ञान के इस दुरुप्रयोग के प्रति बुद्धि का विद्रोह स्वाभाविक था, मैंने लेख आदि में कुछ लिखा भी पर अनुभूति के स्तर पर जो विवशता होती है वह बौद्धिक पकड़ से आगे की बात है उसकी तर्क संगति भी अपनी अलग होती है। इसलिए कविता मैंने इस विषय में नहीं लिखी। यों युद्धकाल में भारत की पूर्वीय सामा पर देखा था कि कैसे सैनिक ब्रह्यपुत्र में बम फेंक कर हजारों मछलियाँ मार देते थे। जबकि उन्हें आवश्यकता थोड़ी-सी होती थी, जीव के इस अपव्यय से जो व्यथा भीतर उमड़ी थी, उससे एक सीमा तक अणु-बम दव्ारा व्यर्थ जीव-नाश का अनुभव तो कर ही सका था।
जापान जाने का अवसर मिला, तब हिरोशिमा गया और वहाँ के अस्पताल भी देखा जहाँ रेडियम-पदार्थ से आहत लोग वर्षों से कष्ट पा रहे थे। इस प्रकार प्रत्यक्ष अनुभव भी हुआ-पर अनुभव से अनुभूति गहरी चीज़ है, कम-से-कम कृतिकार के लिए। अनुभव तो घटित का होता है, पर अनुभूति संवदेना और कल्पना के सहारे उस सत्य को आत्मसात् कर लेती है जो वास्तव में कृतिकार के साथ घटित नहीं हुआ है। जो आँखों के सामने नहीं आया, जो घटित के अनुभव में नहीं आया, वही आत्मा के सामने ज्वलं प्रकाश में आ जाता है, तब वह अनुभूति-प्रत्यक्ष हो जाता है।
तो हिरोशिमा में सब देखकर भी तत्काल कुछ लिखा नहीं, क्योंकि इसी प्रत्यक्ष अनुभूति की कसर थी। फिर एक दिन वहीं सड़क पर घूमते हुए देखा कि एक जले हुए पत्थर पर एक लंबी उजली छाया है-विस्फोट के समय वहाँ कोई खड़ा रहा होगा और विस्फोट से बिखरे हुए रेडियम-धर्मी पदार्थ की किरणें उसमें रुद्ध (बंद हो गई, फँस गई) हो गई होंगी। जो आस-पास से आगे बढ़ गई उन्होंने पत्थर को झुलसा दिया, जो उस व्यक्ति पर अटकीं उन्होंने उसे भाप बनाकर उड़ा दिया होगा। इस प्रकार सूमूची ट्रेजडी जैसे पत्थर पर लिखी गई।
उस छाया को देखकर जैसे एक थप्पड़-सा लगा। अवाक् इतिहास जैसे भीतर कहीं सहसा एक जलते हुए सूर्य-सा उग आया और डूब गया। मैं कहूँ कि उस क्षण में अणु-विस्फोट मेरे अनुभूति-प्रत्यक्ष में आ गया- एक अर्थ में मैं स्वयं हिरोशिमा के विस्फोट का भोक्ता बन गया।
इसी में से वह विवशता जागी। भीतर की आकुलता बुद्धि के क्षेत्र से बढ़कर संवेदना के क्षेत्र में आ गई … . फिर धीरे-धीरे मैं उससे अपने को अलग कर सका और अचानक एक दिन मैंने हिरोशिमा पर कविता लिखी-जापान में नहीं, भारत लौटकर, रेलगाड़ी में बैठे-बैठे।
यह कविता अच्छी है या बुरी; इससे मुझे मतलब नहीं है। मेरे निकट वह सच है, क्योंकि वह अनुभूति-प्रसूत (उत्पन्न) है, यही मेरे निकट महत्त्व की बात है।
सन् 1959 में प्रकाशित अरी ओ करुणा प्रभामय काव्य-संग्रह में संकलित अज्ञेय की हिरोशिमा कविता यहाँ दी जा रही है-
हिरोशिमा
एक दिन सहसा
सूरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौक:
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं,
फटी मिट्टी से।
छायाएँ मानव-जन की
दिशाहीन
सब ओर पड़ीं-वह सूरज
नहीं उगा था पूरब में, वह
बरसा सहसा
बीचों-बीच नगर के:
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्यों अरे टूट कर
बिखर गए हों
दसों दिशा में।
कुछ क्षण का वह उदय-अस्त!
केवल एक प्रज्वलित क्षण की
दृश्य सोख लेने वाली दोपहरी।
फिर?
छायाएँ मानव-जन की
नहीं मिटीं लंबी हो-हो कर:
मानव ही सब भाप होए।
छायाएँ तो अभी लिखी हैं
झलसे हुए पत्थरों पर
उजड़ी सड़कों की गच पर।
मानव का रचा हुआ सूरज
मानव को भाप बनाकर सोख गया।
पत्थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है।
Question 137 (1 of 11 Based on Passage)
Describe in Detail Subjective▾
लेखक के अनुसार प्रत्यक्ष अनुभव की अपेक्षा अनुभूति उनके लेखन में कहीं अधिक मदद करती है, क्यों?
EditExplanation
लेखक के अनुसार प्रत्यक्ष अनुभव की अपेक्षा अनुभूति उनके लेखन में कहीं अधिक मदद करती है, क्योंकि लेखक ने ऐसा इसलिए कहा है कि अनुभव तो घटित होता है, क्योंकि जब हम कोई कार्य बार-बार करते है तो हमें उस कार्य का अनुभव हो जाता है। पर अनुभूति संवेदना और कल्पना के सहारे उस सत्य को आत्मसात् कर लेती है जो वास्तव में कृतिकार के साथ घटित नहीं हुआ है। जो आँखों …
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