कृतिका (Kritika-Textbook) [CBSE (Central Board of Secondary Education) Class-10 (Term 1 & 2 MCQ) Hindi]: Questions 323 - 337 of 461
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Passage
यह बात उस मसय की है जब इग्लैंड की रानी एलिज़ाबेथ दव्तीय मय अपने पति के हिंदुस्तान पधारने वाली थीं। अखबारों में उनकी चर्चा हो रही थी। रोज़ लंदन के अखबारों से खबरें आ रही थीं कि शाही दौरे के लिए कैसी-कैसी तैयारियाँ हो रही हैं- रानी एलिज़ाबेथ का दरज़ी परेशान था कि हिंदुस्तान, पाकिस्तान और नेपाल के दौरे पर रानी कब क्या पहनेंगी? उनका सेक्रेटरी और शायद जासूस भी उनके पहले ही इस महादव्ीप का तूफ़ानी दौरा करने वाला था। आखिर कोई मज़ाक तो था नहीं। ज़माना चूँकि नया था, फ़ौज-फाटे के साथ निकलने के दिन बीत चुके थे, इसलिए फ़ोटोग्राफ़रों की फ़ौज तैयार हो रही थी …
इंग्लैंड के अखबारों की कतरने हिंदुस्तान अखबारों में दूसरे दिन चिपकी नज़र आती थीं, कि रानी ने एक ऐसा हलके नीले रंग का सूट बनवाया है जिसका रेशमी कपड़ा हिंदुस्तान से मँगाया गया है … कि करीब चार सौ पौंड खरचा उस सूट पर आया है।
रानी एलिज़ाबेथ की जन्मपत्री भी छपी। प्रिंस फिलिप के कारनामे छपे। और तो और, उनके नौकरों, बावरचियों, खानसामों, अंगरक्षकों की पूरी की पूरी जीवनियाँ देखने में आईं। शाही महल में रहने और पलने वाले कुत्तों तक की तसवीरें अखबारों में छप गईं … .
बड़ी धूम थी। बड़ा शोर-शराबा था। शंख इंग्लैंड में बज रहा था, गूँज हिंदुस्तान में आ रही थी।
इन खबरों से हिंदुस्तान में सनसनी फेल रही थी। राजधानी में तहलका मचा हुआ था। जो रानी पाँच हजार रुपए का रेशमी सूट पहनकर पालम के हवाई अड्डे पर उतरेगी, उसके लिए कुछ तो होना ही चाहिए। कुछ क्या, बहुत कुछ होना चाहिए। जिसके बावरची पहले पर महायुद्ध में जान हथेली पर लेकर लड़ चुके हैं, उसकी शान-शौकत के क्या कहने, और वही रानी दिल्ली आ रही है … नयी दिल्ली ने अपनी तरफ़ देखा और बेसाख्ता (स्वाभाविक रूप से) मुँह से निकल गया, “वह आए हमारे घर, खुदा की रहमत … . कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं!” और देखते-देखते नयी दिल्ली का कायापलट होने लगा।
और करिश्मा तो यह था कि किसी ने किसी से नहीं कहा, किसी ने किसी को नहीं देखा पर सड़कें जवान हो गईं, बुढ़ापे की धूल साफ़ हो गई। इमारतों ने नाज़नीनों (कोमलांगी) की तरह श्रृंगार किया …
लेकिन एक बड़ी मुश्किल पेश थी जॉर्ज पंचम की नाक! … नयी दिल्ली में सब कुछ था, सब कुछ होता जा रहा था, सब कुछ हो जाने की उम्मीद थी पर जॉर्ज पंचम की नाक बड़ी मुसीबत थी। नयी दिल्ली में सब था … . सिर्फ़ नाक नहीं थी!
इस नाक की भी एक लंबी दास्तान है। इस नाके लिए तहलके मचे थे किसी वक्त! आदोंलन हुए थे । राजनीतिक पार्टियों ने प्रस्ताव पास किए थे। चंदा जमा किया था। कुछ नेताओ ने भाषण भी दिए थे। गरमागरम बहसें भी हुई थीं। अखबारों के पन्ने रंग गए थे बहस इस बात पर थी कि जॉर्ज पंचम की नाक रहने दी जाए या हटा दी जाए! और जैसा कि हर राजनीतिक आंदोलन में होता है, कुछ पक्ष में थे कुछ विपक्ष में और ज्यादातर लोग खामोश थे। खामोश रहने वालों की ताकत दोनों तरफ़ थी … .
यह आंदोलन चल रहा था। जॉर्ज पंचम की नाक के लिए हथियार बंद पहरेदार तैनात कर दिए गए थे, क्या मजाल कि कोई उनकी नाक तक पहँुच जाए। हिंदुस्तान में जगह-जगह ऐसी नाकें खड़ी थीं। और जिन तक लोगों के हाथ पहुँच गए उन्हें शानो-शौकत के साथ उतारकर अजायबघरों में पहुँचा दिया गया। कहीं-कहीं तो शाही लाटों (खंभा, मूर्ति) की नाकों के लिए गुरिल्ला युद्ध होता रहा …
उसी जमाने में यह हादसा हुुआ, इंडिया गेट के सामने वाली जॉर्ज पंचम की लाट की नाक एकाएक गायब हो गई! हथियारबंद पहरेदार अपनी जगह तैनात रहे। गश्त लगती रही और लाट की नाक चली गई।
रानी आए और नाक न हो! एकाएक परेशानी बढ़ी। बड़ी सरगरमी शुरु हुई। देश के खैरख्वाहों (भलाई चाहने वाले) की एक मीटिंग बुलाई गई और मसला पेश किया गया कि क्या किया जाए? वहाँ सभी सहमत थे अगर यह नाक नहीं है तो हमारी भी नाक नहीं रह जाएगी …
उच्च स्तर पर मशवरे हुए, दिमाग खरोंचे गए और यह तय किया गया कि हर हालत में इस नाक का होना बहुत ज़रूरी है। यह तय होते ही एक मूर्तिकार को हुक्म दिया गया कि वह फ़ौरन दिल्ली में हाज़िर हो।
मूर्तिकार यों तो कलाकार था पर ज़रा पैसे से लाचार था। आते ही, उसने हुक्कामों के चेहरे देखे, अजीब परेशानी थी उन चेहरों पर, कुछ लटके, कुछ उदास और कुछ बदहवास थे। उनकी हालत देखकर लाचार कलाकार की आँखों में आसूँ आ गए तभी एक आवाज़ सुनाई दी, “मूर्तिकार! जॉर्ज पंचम की नाक लगानी है!”
मूर्तिकार ने सुना और जवाब दिया, “नाक लग जाएगी। पर मुझे यह मालूम होना चाहिए कि यह लाट कब और कहाँ बनी थी। इस लाट के लिए पत्थर कहाँ से लाया गया था?”
सब हुक्कामों ने एक दूसरे की तरफ़ ताका … . एक की नज़र ने दूसरे से कहा कि यह बताने की जिम्मेदारी तुम्हारी है। खैर मसला हल हुआ। एक र्क्लक को फोन किया गया और इस बात की पूरी छानबीन करने का काम सौंपा गया। … पुरातत्व विभाग की फाइलों के पेट चीरे गए पर कुछ पता नहीं चला। र्क्लक ने लौटकर कमेटी के सामने काँपते हुए बयान किया, “सर मेरी खता माफ़ हो, फाइलें सब कुछ हज़म कर चुकी हैं।”
हुक्कामों के चेहरों पर उदासी के बादल छा गए। एक खास कमेटी बनाई गई और उसके जिम्मे यह काम दे दिया गया कि जैसे भी हो, यह काम होना है और इस नाक का दारोमदार (किसी कार्य के होने या न होने की पूरी जिम्मेदारी, कार्यभार) आप पर है।
आखिर मूर्तिकार को फिर बुलाया गया, उसने मसला हल कर दिया। वह बोला “पत्थर की किस्म का ठीक पता नहीं चला तो परेशान मत होइए, मैं हिंदुस्तान के हर पहाड़ पर जाऊँगा और ऐसा ही पत्थर खोजकर लाऊँगा।” कमेटी के सदस्यों की जान में जान आई। सभापति ने चलते-चलते गर्व से कहा “ऐसी क्या चीज है जो हिंदुस्तान में मिलती नहीं। हर चीज इस देश के गर्भ में छीपी है, जरूरत खोज करने की है। खोज करने के लिए मेहनत करनी होगी। इस मेहनत का फल हमें मिलेगा … . आने वाला ज़माना खुशहाल होगा।”
यह छोटा-सा भाषण फ़ौरन अखबारों में छप गया।
मूर्तिकार हिंदुस्तान के पहाड़ी प्रदेशों और पत्थरों की खानों के दौरे पर निकल पड़ा। कुछ दिनों बाद वह हताश लौटा, उसके चेहरे पर लानत बरस रही थी, उसने सिर लटकाकर खबर दी, “हिंदुस्तान का चप्पा-चप्पा खोज डाला पर इस किस्म का पत्थर कहीं नहीं मिला। यह पत्थर विदेशी है।”
सभापति ने तैश में आकर कहा, “लानत है आपकी अक्ल पर! विदेशों की सारी चीज़ेें हम अपना चुके हैं-दिल-दिमाग, तौर तरीके और रहन -सहन, जब हिंदुस्तान में बाल डांस तक मिल जाता है तो पत्थर क्यों नहीं मिल सकता?”
मूर्तिकार चुप खड़ा था। सहसा उसकी आँखों में चमक आ गई। उसने कहा, “एक बात मैं कहना चाहूँगा, लेकिन इस शर्त पर कि यह बात अखबार वालों तक न पहुँचे … .”
सभापति की आँखों में चमक आ गई। चपरासी को हुक्म हुआ और कमरे के सब दरवाज़े बंद कर दिए गए। तब मूर्तिकार ने कहा, “देश में अपने नेताओं की मूर्तियाँ भी है, अगर इजाजत हो और आप लोग ठीक समझें तो … . मेरा मतलब है तो … जिसकी नाक इस लाट पर ठीक बैठे तो , उसे उतार लिया जाए … . ।”
सबने सबकी तरफ़ देख। सबकी आँखों में एक क्षण की बदहवासी के बाद खुशी तैरने लगी। सभापति ने धीमें से कहा, “लेकिन बड़ी होशियारी से।”
और मुर्तिकार फिर देश-दौरे पर निकल पड़ा। जॉर्ज पंचम की खोई हुई नाक का नाप उसके पास था। दिल्ली से वह बंबई पहुँचा। दादाभाई नौराजी, गोखले, तिलक, शिवाजी, कॉवसजी जहांगीर-सबकी नाकें उसने टटोलीं, नापीं, और गुजरात की ओर भागा- गांधीजी, सरदार पटेल, विटठुलभाई पटेल, महादेव देसाई की मूर्तियों को परखा और बंगाल की ओर चला- गुरूदेव रवींद्रनाथ, सुभाषचंद्र बोस, राजा राममोहन राय आदि को भी देखा, नाप -जोख की और बिहार की तरफ़ चला। बिहार होता हुआ उत्तर प्रदेश की ओर आया- चंद्रशेखर आज़ाद, बिस्मिल, मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय की लाटों के पास गया। घबराहट में मद्रास भी पहँुंचा, सत्यमूर्ति को भी देखा और मैसूर केरल आदि सभी प्रदेशों का दौरा करता हुआ पंजाब पहुंचा- लाला लाजपतराय और भगतसिंह की लाटों से भी सामना हुआ। आखिर दिल्ली पहुँचा और उसने अपनी मुश्किल बयान की, ″ पूरे हिंदुस्तान की परिक्रमा कर आया, सब मूर्तियाँ देख आया। सबकी नाकों का नाप लिया पर जॉर्ज पंचम की इस नाक से सब बड़ी निकलीं।
सुनकर सब हताश हो गए और झुँझलाने लगे। मूर्तिकार ने ढाढस बँधाते हुए आगे कहा, “सुना है कि बिहार सेक्रेटएट के सामने सन् 42 में शहीद होने वाले बच्चों की मूर्तियाँ स्थापित हैं, शायद बच्चों की नाक ही फिट बैठ जाए, यह सोचकर वहाँ भी पहुँचा पर उन बच्चों की नाकें भी इससे कहीं बड़ी बैठती हैं। अब बताइए, मैं क्या करुँ?”
… राजधानी में सब तैयारियाँ थीं। जॉर्ज पंचम की लाट को मल-मलकर नहलाया गया था। रोगन लगाया गया था। सब कुछ हो चुका था, सिर्फ़ नाक नहीं थीं
बात फिर बड़े हुक्कामों तक पहुँची। बड़ी खलबली मची-अगर जॉर्ज पंचम के नाक न लग पाई तो फिर रानी का स्वागत करने का मतलब? यह तो अपनी नाक कटाने वाली बात हुई।
लेकिन मूर्तिकार पैसे से लाचार था … . यानी हार मानने वाला कलाकार नहीं था। एक हैरतअंगेज खयाल उसके दिमाग में कौंधा और उसने पहली शर्त दोहराई। जिस कमरे में कमेटी बैठी हुई थी उसके दरवाजे फिर बंद हुए और मूर्तिकार ने अपनी नयी योजना पेश की, “चूँकि नाक लगना एकदम ज़रूरी है, इसलिए मेरी राय है कि चालीस करोड़ में से कोई एक जिंदा नाक काटकर लगा दी जाए … .”
बात के साथ ही सन्नाटा छा गया। कुछ मिनटों की खामोशी के बाद सभापति ने सबकी तरफ़ देखा। सबको परेशान देखकर मूर्तिकार कुछ अचकचाया (चौंक उठना, भौंचक्का होना) और धीरे से बोला, “आप लोग क्यों घबराते हैं! यह काम मेरे ऊपर छोड़ दीजिए … नाक चुनना मेरा काम है, आपकी सिर्फ़ इजाज़त चाहिए।”
कानाफूसी हुई और मूर्तिकार को इजाज़त दे दी गई।
अखबारों में सिर्फ़ इतना छपा कि नाक का मसला हल हो गया है और राजपथ पर इंडिया गेट के पास वाली जॉर्ज पंचम की लाट पर नाक लग रही है।
नाक लगने से पहले फिर हथियारबंद पहरेदारों को तैनाती हुई। मूर्ति के आस-पास का तालाब सुखाकर साफ़ किया गया। उसकी रबाव निकाली गई और ताजा पानी डाला गया ताकि जो ज़िंदा नाक लगाई जाने वाली थी, वह सुख न पाए। इस बात की खबर जनता को पता नहीं थी। यह सब तैयारियाँ भीतर-भीतर चल रही थीं। रानी के आने का दिन नज़दीक आता जा रहा था मूर्तिकार खुद अपने बताए हल से परेशान था। ज़िंदा नाक लाने के लिए उसने कमेटी वालों से कुछ और मदद माँगी। वह उसे दी गई। लेकिन इस हिदायत के साथ कि एक खास दिन हर हालत में नाक लग जानी चाहिए।
और वह दिन आया।
जॉर्ज पंचम की नाक लग गई।
सब अखबारों ने खबरें छापी कि जॉर्ज पंचम की नाक लगाई गई है … . यानी ऐसी नाक जो कतई पत्थर की नहीं लगती।
लेकिन उस दिन के अखबारों में एक बात गौर करने की थी। उस दिन देश में कहीं भी किसी उद्घाटन की खबर नहीं थी। किसी ने कोई फीता नहीं काटा था। कोई सार्वजनिक सभा नहीं हुई थी। कहीं भी किसी का अभिनंदन नहीं हुआ था, कोई मानपत्र भेंट करने की नौबत नहीं आई थी। किसी हवाई अडडे या स्टेशन पर स्वागत-समारोह नहीं हुआ था। किसी का ताज़ा चित्र नहीं छपा गया था। सब अखबार खाली थे। पता नहीं ऐसा क्यों हुआ था? नाक तो सिर्फ़ एक चाहिए थी वह भी बुत के लिए।
Question 323 (9 of 11 Based on Passage)
Explanation
सब अखबारों ने खबरें छापीं कि जॉर्ज पंचम के ज़िंदा नाक लगाई गई है … . यानी ऐसी नाक जो कतई पत्थर की नहीं लगती। अर्थात अखबार वालों ने सकेंत के माध्यम से कुछ सत्य भी लिखा है कि नाक कट जाने पर दुबारी वैसी नाक नहीं लग सकती है। इ…
… (454 more words) …
Question 324 (10 of 11 Based on Passage)
Describe in Detail Subjective▾
“नयी दिल्ली में सब था … . सिर्फ़ नाक नहीं थी।” इस कथन के माध्यम से लेखक क्या कहना चाहता है?
EditExplanation
लेखक यह कहना चाहता है कि नयी दिल्ली में…
… (169 more words) …
Question 325 (11 of 11 Based on Passage)
Explanation
जॉर्ज पंचम की नाक लगने वाली खबर से अखबार चुप इसलिए थे क्योंकि सच्चाई सामने आने पर देश की या विदेश की सारी जनता में हाहाकार मच जाता। और तो और रानी एलिज़ाबेथ इस बात पर बहुत नाराज होती कि विदेशी मूर्ति में किसी भारतीय की जिंदा नाक काट कर लगायी गई। दूसरी बात देश के मान-सम्मान प्रतिष्ठा की थी। अगर नाक नहीं लग पाती तो रानी जी के सामने हमारे देश की नाक कट…
… (599 more words) …
Passage
“बड़ा खतरनाक कार्य होगा यह” मेरे मूँह से अकस्मात यह निकला। वह संजीदा हो गया। कहने लगा, पिछले महिने तो एक की जान चली गई थी। बड़ा दुसाध्य कार्य है पहाड़ों पर रास्ता बनाना। डाइनामाइट से चट्टानों को उड़ा दिया जाता है। फिर बड़े-बड़ेे पत्थरों को तोड़-मोड़कर एक आकार के छोटे-छोटे पत्थरों में बदला जाता है फिर बड़े-से जाले में उन्हें लंबी पट्टी की तरह बिठाकर कटे रास्तों पर बाड़े की तरह लगाया जाता है। ज़रा-सी चूक और सीधा पाताल प्रवेश!
और तभी मुझे ध्यान आया … . इन्हीं रास्तों पर एक जगह सिक्किम सरकार के बोर्ड लगा था जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था, “एवर वंडर्ड हू डिफाइड डेथ टू बिल्ड दीज रोड्स” (आप ताज्जुब करेंगे पर इन रास्तों को बनाने में लोगों ने मौत को झुठलाया है।)
Question 326 (1 of 3 Based on Passage)
Question 327 (2 of 3 Based on Passage)
Question 328 (3 of 3 Based on Passage)
Passage
मूर्तिकार चुप खड़ा था। सहसा उसकी आँखों में चमक आ गई। उसने कहा, “एक बात मैं कहना चाहूँगा, लेकिन इस शर्त पर कि यह बात अखबार वालों तक न पहुँचे … .”
सभापति की आँखों में चमक आ गई। चपरासी को हुक्म हुआ और कमरे के सब दरवाज़े बंद कर दिए गए। तब मूर्तिकार ने कहा, “देश में अपने नेताओं की मूर्तियाँ भी है, अगर इजाजत हो और आप लोग ठीक समझें तो … . मेरा मतलब है तो … जिसकी नाक इस लाट पर ठीक बैठे तो , उसे उतार लिया जाए … . ।”
सबने सबकी तरफ़ देख। सबकी आँखों में एक क्षण की बदहवासी के बाद खुशी तैरने लगी। सभापति ने धीमें से कहा, “लेकिन बड़ी होशियारी से।”
Question 329 (1 of 1 Based on Passage)
Passage
हिचकोले खाती हमारी जीप थोड़ी और आगे बढ़ी। अपनी लुभावनी हँसी बिखरते हुए जितेन बताने लगा … इस जगह का नाम कवी-लोंग स्ऑक। यहाँ ‘गाइड’ फिल्म की शूटिंग हुई थी। तिब्बत के चीस-खे बम्सन ने लेपचाओं के शोमेन से कुंजतेक के साथ संधि-पत्र पर यहीं हस्ताक्षर किए थे। एक पत्थर यहाँ स्मारक के रुप में भी है। (लेपचा और भुटिया सिकिकम की इन दोनों स्थानीय जातियों के बीच चले सुदीर्घ झगड़ों के बाद शांति वार्ता का शुरुआती स्थल।)
उन्हीं रास्तों पर मैंने देखा-एक कुटियर के भीतर घूमता चक्र। यह क्या? नार्गे कहने लगा … . “मेडम यह धर्म चक्र है। प्रेयल फिल। इसको घुमाने से सारे पाप धुल जाते हैं।”
“क्या?” चाहे मैदान हो या पहाड़, तमाम वैज्ञानिक प्रगतियो के बावजूद इस देश की आत्मा एक जैसी। लोगों की आस्थाएँ, विश्वास, अंधविश्वास, पाप-पुण्य की अवधारणाएँ और कल्पनाएँ एक जैसी।
Question 330 (1 of 7 Based on Passage)
Question 331 (2 of 7 Based on Passage)
Question 332 (3 of 7 Based on Passage)
Write in Short Short Answer▾
कवी-लोंग स्टॉक नामक जगह में फिल्म की शूटिंग के अलावा ओर क्या हुआ था?
EditQuestion 333 (4 of 7 Based on Passage)
Question 334 (5 of 7 Based on Passage)
Question 335 (6 of 7 Based on Passage)
Question 336 (7 of 7 Based on Passage)
Passage
यह भीतरी विवशता क्या होती है? इसे बखानना बड़ा कठिन है। क्या वह नहीं होती यह बताना शायद कम कठिन होता है। या उसका उदाहरण दिया जा सकता है-कदाचित् वही अधिक उपयोगी होगा। अपनी एक कविता की कुछ चर्चा करूँ जिससे मेरी बात स्पष्ट हो जाएगी।